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________________ प्रमाण की इस प्रमाणता और अप्रमाणता के विषय में प्रायः सभी दार्शनिकों में मतभेद पाया जाता है। मीमांसक कुमारिल भट्ट ज्ञान की प्रमाणता को स्वतः और अप्रमाणता को परतः मानते हैं। इस प्रकार वे स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। उनका कहना है-'प्रमाण की अर्थ को जानने रूप शक्ति को अथवा अर्थ को जानने रूप क्रिया को प्रामाण्य कहते हैं।' यह प्रामाण्य-ज्ञान, ज्ञान-मात्र को उत्पन्न करने वाली सामग्री से ही उत्पन्न होता है। उसके लिए उस सामग्री के अतिरिक्त अन्य किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी का नाम स्वतः प्रामाण्य है अर्थात् जहाँ ज्ञान तथा तद्गत प्रामाण्य दोनों का ग्रहण एक ही सामग्री से हो जाता है, उसे स्वतः प्रामाण्य कहा जाता है।" अथवा अर्थ को ज्यों का त्यों जान लेने की शक्ति का नाम प्रामाण्य है। यह शक्ति पदार्थों में स्वत: ही प्रकट होती है। वह उत्पादक कारणों के अधीन नहीं है। तात्पर्य यह है कि सब प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः ही होता है, क्योंकि जो शक्ति स्वयं अविद्यमान है उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता इसके विपरीत ज्ञानग्राहक और प्रमाण्यग्राहक सामग्री अलग-अलग होने पर परतः प्रामाण्य होता है। मीमांसक मत में ज्ञान और प्रामाण्य दोनों की ग्राहक एक ही सामग्री 'ज्ञाततान्यथानुपपत्तिप्रसूता अर्थापत्ति' है। उनका अभिप्राय यह है कि अयं घटः' इस ज्ञान से घट में एक 'ज्ञातता' नामक धर्म उत्पन्न होता है। यह धर्म 'अयं घटः' इस ज्ञान के होने से पहले नहीं था। इस ज्ञान के बाद उत्पन्न हुआ है। इसलिए यह 'अयं घट:' इस ज्ञान से जन्य है। अर्थात् उसका कारण ज्ञान है। इस ‘ज्ञातता' धर्म की प्रतीति 'ज्ञातो मया घटः' इस ज्ञान में होती है। यह 'ज्ञातता' धर्म अपने कारण ज्ञान के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है। इसलिए 'ज्ञातता' की 'अन्यथानुपपत्ति से प्रसूता अर्थापत्ति' ही इस ज्ञातता धर्म की ग्राहिका है और जब ज्ञाततान्यथानुपपत्ति प्रसूता अर्थापत्ति से ज्ञान का ग्रहण होता है, तब उस ज्ञान में रहने वाले प्रामाण्य का ग्रहण भी उसी अर्थापत्ति से हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानग्राहक और प्रामाण्यग्राहक सामग्री समान होने से स्वतः प्रामाण्य है। न्याय-वैशेषिक दर्शन प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को परत: मानते हैं। अतः ये परतः प्रामाण्यवादी हैं। न्याय के परतः प्रामाण्यवाद में ज्ञान और प्रामाण्य दोनों की ग्राहक सामग्री अलग-अलग है। ज्ञानग्राहक सामग्री तो अनुव्यवसाय है और प्रामाण्य या अप्रामाण्य की ग्राहक सामग्री प्रवृत्ति का साफल्य या वैफल्यमूलक अनुमान है। सांख्य और योग प्रामाण्य व अप्रामाण्य दोनों को स्वतः मानते हैं। बौद्धदर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य के स्वतो ग्राह्यत्व और परतो ग्राह्यत्व तत्त्वाधिगम के उपाय :: 85 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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