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________________ यही स्थिति श्वेताम्बर आचार्य वादिदेव सूरि की है। इन्होंने भी अपने सूत्रग्रन्थ 'प्रमाण-नय-तत्त्वालोक' की रचना आचार्य माणिक्यनन्दी के सूत्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' को सामने रखकर की है। आचार्य वादिदेव सूरि ने स्व और पर को निश्चित रूप से जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। इस लक्षण में 'स्व' का अर्थ है ज्ञान और 'पर' का अर्थ है ज्ञान से भिन्न पदार्थ । तात्पर्य यह है कि वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है जो अपने आपको और अपने से भिन्न दूसरे पदार्थों को भी यथार्थ तथा निश्चितरूप से जाने। आचार्य विद्यानन्दि ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बतलाकर बाद में स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बतलाया है। इन्होंने प्रमाण के लक्षण में अनधिगत या अपूर्व विशेषण नहीं दिया है, क्योंकि इनके अनुसार ज्ञान चाहे अपूर्व (अगृहीत) अर्थ को जाने या गृहीत अर्थ को, वह 'स्व' और 'पर' का निश्चय करने वाला होने से ही प्रमाण माना जाता है। सन्मति टीकाकार अभयदेव सूरि आचार्य विद्यानन्दि की तरह स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को ही प्रमाण कहते हैं। पर-व्यवसायात्मक के स्थान पर 'निर्णीत' पद का प्रयोग करते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अर्थ के सम्यक् निर्णय को प्रमाण कहा है। __ आचार्य धर्मभूषण ने अपने 'न्यायदीपिका' ग्रन्थ में आचार्य विद्यानन्दि के द्वारा स्वीकृत सम्यग्ज्ञानत्व रूप प्रमाण के सामान्य लक्षण को ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक, अगृहीत-ग्राही एवं स्वार्थ व्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीर्ति, प्रभाकर भट्ट और नैयायिकों के प्रमाण-लक्षणों की आलोचना की है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर और अकलंक देव का प्रमाण सामान्य लक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकों के लिए आधार हुआ है। प्रायः उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने इसी आचार्यत्रयी की प्रमाण लक्षण सम्बन्धी विचारधारा को अपनाकर अपने-अपने प्रमाण-लक्षणों का परिष्कार किया है। (4) प्रमाण की प्रमाणता-जो पदार्थ जैसा है, उसको उसी रूप में जानना ज्ञान की प्रमाणता है और अन्य रूप में जानना अप्रमाणता है। प्रमाणता और अप्रमाणता का यह भेद बाह्य पदार्थों की अपेक्षा समझना चाहिए। प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही जानता है। अतः स्व-रूप की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण होते हैं। बाह्य पदार्थों की अपेक्षा कोई ज्ञान प्रमाण होता है और कोई अप्रमाण। प्रमाणता की उत्पत्ति उन्हीं कारणों से होती है जिन कारणों से प्रमाण उत्पन्न होता है। अप्रमाणता भी इसी तरह अप्रमाण के कारणों से ही पैदा होती है। 84 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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