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के तीन करण माने गये हैं-इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष और ज्ञान । किन्तु इन्द्रिय
और इन्द्रियार्थ को प्रत्यक्ष प्रमा का करण मानना ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और सन्निकर्ष स्वयं अचेतन तथा अज्ञान रूप हैं अतः वे अज्ञान की निवृत्तिरूप प्रमा के करण कैसे हो सकते हैं ? अज्ञान-निवृत्ति का विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है। जैसे कि अन्धकार की निवृत्ति में अन्धकार का विरोधी प्रकाश ही मुख्य करण होता है। प्रमिति या प्रमा अज्ञान-निवृत्ति रूप होती है अतः इस अज्ञान-निवृत्ति में अज्ञान के विरोधी ज्ञान को ही करण मानना उचित है। ___(3) जैनदर्शन-सम्मत प्रमाण-लक्षण-प्रमाण के लक्षण क्षेत्र में प्रमाण लक्षण की अनेक धाराएँ बहीं, तब जैनदर्शनिकों को भी प्रमाण की स्वमन्तव्यपोषक एक परिभाषा निश्चित करनी पड़ी। सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्र ने 'स्व' और 'पर' को प्रकाशित करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी स्वामी समन्तभद्र के इस प्रमाण-लक्षण में 'बाधविवर्जित' पद जोड़कर स्वपरावभासक अवाधित ज्ञान को प्रमाण माना है।
आचार्य समन्तभद्र और आ. सिद्धसेन के उत्तरवर्ती पूज्यपाद स्वामी ने भी जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमिति मात्र है, वह प्रमाण है।' इसप्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए स्वपरावभासक ज्ञान को ही प्रमाण कहा है और इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष तथा मात्र ज्ञान को प्रमिति का करण (प्रमाण) मानने में दोष प्रदर्शित किये हैं।
इसके बाद जैन न्याय के प्रतिष्ठापक तार्किक विद्वान् अकलंकदेव ने प्रमाण लक्षण में व्यवसायात्मक पद जोड़कर अपने और अर्थ को ग्रहण करने वाले व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रमाण कहा है।" उन्होंने ही पुन: अनधिगतार्थग्राही अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण बतलाया है।
अकलंकदेव के उत्तरवर्ती आचार्य माणिक्यनन्दी ने 'स्व और अपूर्व अर्थ अर्थात् जो किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य माणिक्यनन्दी के प्रमाण लक्षण पर आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन तथा अकलंकदेव का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है। क्योंकि इन्होंने अपने प्रमाण-लक्षण द्वारा आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन द्वारा स्थापित तथा अकलंकदेव द्वारा विकसित प्रमाण-लक्षण का समर्थन किया है। इन्होंने अपने सूत्र-ग्रन्थ 'परीक्षामुख' की रचना इन तीनों आचार्यों के दार्शनिक प्रकरणों का मन्थन करके ही की है। उत्तरकालीन आचार्यों ने भी प्रायः प्रमाण के इन्हीं लक्षणों को अपनाया है।
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 83
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