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________________ सहित जानते हैं तो द्रव्य के स्वभाव को समझते हैं । अर्थात् द्रव्य के स्वभाव को समझने के लिए गुण, पर्याय, निक्षेपादि का जानना आवश्यक है।” इस प्रकार इन प्रमाणादि को समझे बिना हमें वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान नहीं हो सकता । अतः इनका क्रमबद्ध विवेचन किया जाता है। प्रमाण (1) प्रमाण का सामान्य लक्षण - जिसके द्वारा पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है । सम्यक् निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और संशय, विपर्यय आदि ज्ञान अयथार्थ । प्रमाण से केवल यथार्थ ज्ञान होता है । वस्तु का संशय, विपर्यय आदि से रहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह प्रमाण है । यह प्रमाण का व्युत्पत्तिलभ्य सामान्य अर्थ है। इसी व्युत्पत्ति का आश्रय लेकर सभी भारतीय दार्शनिकों ने प्रमा के करण अर्थात् साधकतम कारण को प्रमाण कहा है।° प्रमाण शब्द 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'मा' धातु के करण में ल्युट् प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है । अतएव प्रमा का करण अर्थात् साधन प्रमाण कहलाता है। जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही जानना प्रमा है। अथवा यथार्थ ज्ञान को प्रमा" कहते हैं। करण का अर्थ है साधकतम । जो जिस कार्य का साधकतम अर्थात् अतिशयेन साधक या प्रकृष्ट उपकारक या कारण हो वह उस कार्य का करण होता है" । एक कार्य की सिद्धि में अनेक सहयोगी होते हैं, किन्तु वे सभी करण नहीं कहलाते। फलकी सिद्धि में जिसका व्यापार अत्यन्त रूप से साधक, प्रकृष्ट उपकारक होता है, वह करण कहलाता है। कलम से लिखने में हाथ और कलम दोनों चलते हैं, किन्तु करण कलम ही होगा। क्योंकि लिखने का निकटतम सम्बन्ध कलम से है, हाथ से उसके बाद । इसलिए हाथ साधक और कलम साधकतम है। (2) प्रमा की करणता - प्रमाण के इस सामान्य लक्षण में किसी को भी विवाद नहीं है। विवाद है तो केवल प्रमा के करण के विषय में । बौद्ध सारूप्य (तदाकारता) और योग्यता को प्रमा का करण मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष और ज्ञान को करण मानते है । सांख्य इन्द्रिय वृत्ति को करण के स्थान में रखते हैं । प्रभाकर ज्ञाता के व्यापार को करण मानता है तो मीमांसक इन्द्रिय को। ऐसी स्थिति में जैन केवल ज्ञान को ही प्रमा का करण मानते हैं । जैनदर्शन की मान्यता है कि जानना या प्रमारूप क्रिया चेतन है और चेतन क्रिया में साधकतम कारण कोई अचेतन नहीं हो सकता, अतः अव्यवहित रूप से प्रमा का जनक ज्ञान ही करण हो सकता है । न्याय-वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमा 82 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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