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विशेष रहित हों वे गुण हैं' यह कहा गया है। ऐसा नियम है कि जैसे द्रव्य में गुण पाये जाते हैं वैसे गुण में अन्य गुण नहीं पाये जाते हैं, अतएव वे स्वयं विशेष रहित होते हैं। इस प्रकार 'जो द्रव्य के आश्रय रहते हैं और स्वयं विशेष रहित हैं, वे गुण हैं।143 दूसरे शब्दों में शक्ति विशेष को भी गुण कहा गया है, इसमें अन्य शक्ति का वास नहीं रहता, इसलिए इसे निर्गुण कहा जाता है।
गुणों को द्रव्य के समान कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी कहा गया है। यद्यपि गुणों की इस नित्यानित्यात्मकता के विषय में जैनेतर दर्शनों में विवाद पाया जाता है, किन्तु जैनदर्शन द्रव्य के समान गुणों की नित्यानित्यात्मकता को स्वीकार करता है। उसके अनुसार गुण भी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य होते हैं; क्योंकि गुण द्रव्य से पृथक् नहीं पाये जाते, इसलिए द्रव्य का जो स्वभाव है, गुणों का भी वही स्वभाव पाया जाता है। ऐसा नहीं होता कि कोई गुण वर्तमान में हो और कुछ काल बाद न रहे। जितने भी गुण हैं वे सदा पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ-जीव में ज्ञानादि का, पुद्गल में रूप आदि का सदा अन्वय देखा जाता है। ऐसा समय न तो कभी प्राप्त हुआ और न कभी प्राप्त हो सकता है, जिसमें जीव के ज्ञान आदि गुणों का अभाव रहे और पुद्गल में रूपादि का अभाव रहे। इससे . ज्ञात होता है कि गुण नित्य हैं, उनकी यह नित्यता प्रत्यभिज्ञान से सिद्ध है। यह ठीक है कि विषय-भेद से जीव का ज्ञान गुण बदला दिखता है। जब वह घट को जानता है तब वह घटाकार हो जाता है और पट को जानते हुए पटाकार, पर ज्ञान की धारा कभी भी नहीं टूटती, इसलिए ज्ञान सन्तान की अपेक्षा वह ज्ञान गुण नित्य ही है। इसी नित्य को ध्रौव्य भी कहा जाता है। जैन-दर्शन में ऐसा ध्रुवत्व भी इष्ट नहीं जो सदा अपरिणामी रहे। सांख्यदर्शन पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है, पर प्रकृति के सम्पर्क से उसे बद्ध जैसा मान लेने पर वह कूटस्थता नहीं बन सकती। यह बात अन्य नित्यवादी दर्शनों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। इससे यही सिद्ध होता है कि गुण विविध अवस्थाओं में रहकर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसी कारण वह नित्य कहा जाता है। जैसे-हरा आम पकने पर पीला हो जाता है तो भी उससे रंग पृथक् नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि वर्ण नित्य है। यह सिद्धान्त सब गुणों के सम्बन्ध में समझना चाहिए।
यहाँ यह विचारणीय है कि नित्यता का यह अर्थ नहीं कि वह सदा एक सा बना रहे, उसमें किसी भी प्रकार का परिणमन न हो। यह तो ठीक है कि किसी भी वस्तु या गुण में विजातीय परिणमन नहीं होता। जीव बदलकर पुद्गल या अन्य द्रव्य रूप नहीं होता और पुद्गल या अन्य द्रव्य बदलकर जीव रूप नहीं होते। जीव सदा जीव ही बना रहता है। और पुद्गल सदा पुदगल ही। जो द्रव्य जिस रूप होता
62 :: जैनदर्शन में नयवाद
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