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भेद-व्यवहार का कारण है। किन्तु इसका यह मतलब नहीं लेना चाहिए कि द्रव्य के अभाव को गुण और गुण के अभाव को द्रव्य कहते है, क्योंकि जैसे सोने का विनाश होने पर सोने के गुणों का विनाश हो जाता है और सोने के गुणों का विनाश होने पर सोने का विनाश हो जाता है, वैसे ही द्रव्य के अभाव में गुण का अभाव हो जाएगा और गुण के अभाव में द्रव्य का अभाव हो जाएगा।
जैनदर्शन के अनसार द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकते और गुण के बिना द्रव्य नहीं रह सकता। अत: नाम, लक्षण आदि के भेद से द्रव्य और गुण में भेद होने पर भी दोनों का अस्तित्व एक ही है अतः वस्तुत्व रूप से दोनों अभिन्न हैं।140 तात्पर्य यह है कि द्रव्य से भिन्न न गुण का कोई अस्तित्व है और न पर्याय का। जैसे सोने से भिन्न न पीलापन है और न कुण्डलादि हैं। अतः द्रव्य से उसका गुण और पर्याय भिन्न नहीं है। चूंकि सत्ता द्रव्य का स्वरूपभूत अस्तित्व नामक गुण है अतः वह द्रव्य से भिन्न कैसे हो सकती है? इसलिए द्रव्य स्वयं सत् स्वरूप है।
श्री माइल्ल धवल ने भी 'जो द्रव्य के सहभावी हों उन्हें गुण कहा है। वे गुण सामान्य और विशेष के भेद से दो प्रकार के हैं। सब द्रव्यों में पाये जाने वाले सामान्य गुण दस कहे है और विशेष गुण सोलह । 47 इनका विवेचन आगे किया जाएगा।
गुण द्रव्य से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि न गुण से द्रव्य का अस्तित्व भिन्न है और न द्रव्य से गुण का अस्तित्व भिन्न है, अत: दोनों में एक द्रव्यपना है। इसी तरह द्रव्य और गुण के प्रदेश भिन्न नहीं है, अतः दोनों में एक क्षेत्रपना है। दोनों सदा सहभावी हैं, इसलिए दोनों में एक कालपना है और दोनों का एक स्वभाव होने से दोनों में भाव की अपेक्षा भी एकत्व है। गुणों के समुदाय को भी द्रव्य कहा है,42 अत: गुण द्रव्य के सहभावी होते हैं और पर्याय क्रम-भावी होती हैं। एक द्रव्य के सब गुण एक साथ रहते हैं, किन्तु पर्याय एक के बाद एक क्रम से होती
- पहले द्रव्य-विवेचन-प्रकरण में द्रव्य को गुण और पर्याय वाला कहा गया है, इससे स्पष्ट है कि गुण द्रव्य के आश्रय से रहते हैं। अर्थात् द्रव्य आधार है और गुण आधेय हैं। पर इससे आधार और आधेय में दही और कुण्ड के समान सर्वथा भेद पक्ष का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुण द्रव्य के आश्रय से रहते हुए भी वे उससे कथंचित् अभिन्न हैं। जैसे तेल तिल के सब अवयवों में व्याप्त रहता है वैसे ही प्रत्येक गुण द्रव्य के सभी अवयवों में समान रूप से व्याप्त रहता है। इससे व्यणुक आदि पर्यायों में भी यह लक्षण घटित हो जाता है, क्योंकि व्यणुक आदि भी अपने आधार-भूत परमाणु द्रव्य के आश्रय से रहते हैं। अतएव 'जो स्वयं
नयवाद की पृष्ठभूमि :: 61
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