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________________ का संकोच और बड़े शरीर में उन्हीं आत्मप्रदेशों का विस्तार हो जाता है लेकिन जीव वही रहता है। जैसे- हाथी और चींटी या सूक्ष्म - से- सूक्ष्म किसी जीव-जन्तु के शरीर में रहता है। 137 एक प्रदेश में स्थित होने के कारण यद्यपि ये सभी द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते. हैं, लेकिन अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते इसलिए उनमें संकर या एकत्व दोष नहीं हो सकता। कहा भी है- ये द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते हैं, एक-दूसरे में मिलते हैं, परस्पर में एक दूसरे को अवकाश देते हैं लेकिन अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते | 138 उक्त जीवादि छहों द्रव्य शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार के हैं। इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये चार द्रव्य तो सदा शुद्ध ही रहते हैं, परन्तु जीव और पुद्गल, ये दो द्रव्य शुद्ध तथा अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं। कर्म, नोकर्म (शरीर) के सम्बन्ध से रहित जीव द्रव्य का जो मुक्त अवस्था में परिणमन है वह शुद्ध जीव द्रव्य का परिणमन है और संसार अवस्था में जीव का परद्रव्य पुद्गल तथा पुद्गलजन्य रागादि के साथ जो सम्बन्ध रहता है, उस अवस्था में जीव का जो परिणमन है, वह अशुद्ध जीव द्रव्य का परिणमन है। इसी प्रकार जीव के रागादि : भावों का निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य में जो कर्मरूप परिणमन है, वह अशुद्ध पुद्गल का परिणमन है और जीव निरपेक्ष पुद्गल का जो स्वाश्रित परिणमन है वह शुद्ध पुद्गल का परिणमन है । अथवा पुद्गल का जो अणुरूप परिणमन है वह शुद्ध परिणमन है और द्व्यणुक आदि स्कन्ध रूप अथवा कर्म-स्कन्ध रूप जो परिणमन है वह अशुद्ध परिणमन है। इसप्रकार एक द्रव्य अनेक शुद्ध-अशुद्ध पर्यायों का समूह है । गुण-स्वरूप और भेद स्वरूप - जो द्रव्य के आश्रित हों और स्वयं दूसरे गुणों से रहित हों, वे गुण कहलाते हैं। 139 द्रव्य की अनेकों पर्यायों के बदलते रहने पर भी जो द्रव्य से कभी पृथक् न हों, निरन्तर द्रव्य के साथ रहें, वे गुण हैं। जैसे जीव के ज्ञानादि गुण और पुद्गल के रूप रसादि । सत्ता को भी गुण कहा गया है, अतः वह द्रव्य के आश्रित है और स्वयं निर्गुण है । किन्तु द्रव्य किसी के आश्रित नहीं है वह तो सत्ता जैसे अनन्त गुणों का आश्रय है। इस तरह गुण और गुणी के भेद से दोनों में भेद है किन्तु उनमें प्रदेश-भेद नहीं है। जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है । अतः द्रव्य का गुण रूप और गुण का द्रव्य रूप न होना ही उन दोनों में 60 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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