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________________ के ठहरने में सहायक होता है वह अधर्मद्रव्य है, किन्तु वह अधर्मद्रव्य गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को ठहराता नहीं है। जिस प्रकार धर्मद्रव्य गति-सहकारी . है उसी प्रकार अधर्मद्रव्य स्थिति-सहकारी है। जैसे-पृथ्वी स्वयं पहले से ही स्थिति रूप है तथा पर की स्थिति में प्रेरक नहीं है। किन्तु स्वयं स्थिति रूप परिणमते हुए अश्वादिकों का उदासीन, अविनाभूत सहकारी कारण भाव है, उसी प्रकार अधर्म-द्रव्य भी स्वयं पहले से ही स्थितिरूप पर के स्थिति परिणमन में प्रेरक न । होता हुआ स्वयमेव स्थितिरूप परिणमते हुए जीव और पुद्गलों का उदासीन अविनाभूत सहकारी कारण मात्र है।" इस अधर्मद्रव्य को स्थिति का माध्यम कह सकते हैं। ये दोनों ही द्रव्य उदासीन कारण हैं न कि प्रेरक। प्रेरणा करके बलात् किसी भी द्रव्य को ये न तो चलाते है और न ठहराते हैं, किन्तु चलते हुए को चलने में और ठहरते हुए को ठहरने में मदद करते हैं। यदि ये प्रेरकं कारण होते तो बड़ी गड़बड़ हो जाती। न तो कोई पदार्थ गमन ही कर सकता था, न ठहर ही सकता था, क्योंकि जब धर्मद्रव्य यदि गमन करने के लिए प्रेरित करता तो उसी समय उसका प्रतिपक्षी अधर्मद्रव्य उन्हीं पदार्थों को ठहरने के लिए प्रेरित करता, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य सर्वत्र एवं सर्वदा समस्त लोकाकाश में विद्यमान रहते हैं। अतएव जब धर्मद्रव्य चलने में सहायक होगा तब अधर्मद्रव्य उसमें बाधक होगा तथा जब अधर्मद्रव्य ठहरने में सहायक होगा तो उसी समय धर्मद्रव्य बाधक हो जाएगा। अथवा जो चल रहे हैं वे चलते ही रहेंगे और जो ठहरे हैं वे ठहरे ही रहेंगे, किन्तु जो चलते हैं वे ठहरते भी हैं। अतः जीव और पुद्गल स्वयं ही चलते हैं और स्वयं ही ठहरते हैं। धर्म और अधर्मद्रव्य केवल उसमें सहायक मात्र हैं या उदासीन कारण हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है सांख्य-योग, न्याय वैशेषिक आदि दर्शन आकाश और काल द्रव्य को तो मानते हैं, किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य को नहीं मानते हैं, पर इससे इन दोनों के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोकालोक का विभाग और गति-स्थिति की साधारण कारणता, इन दो बातों से इनका अस्तित्व जाना जाता है और इसी से इन दोनों की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध होती है। लोक में जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ गतिशील भी है और स्थितिशील भी। इनके अतिरिक्त शेष सब पदार्थ निष्क्रिय होने से स्थितिशील नहीं हैं, किन्तु यहाँ पर गतिपूर्वक होने वाली स्थिति और स्थितिपूर्वक होने वाली गति विवक्षित है, जो जीव और पुद्गल इन दो के सिवाय अन्यत्र नहीं पायी जाती। यद्यपि जीव 46 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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