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________________ और धर्म तथा अधर्म शब्द दो अचेतन द्रव्यों के वाचक हैं। ये दोनों ही अमूर्तिक, अखण्ड, अदृश्य और अचेतन द्रव्य हैं, जो तिल में तेल की तरह समस्त लोक में व्याप्त हैं, लोक के कण-कण में भरे हुए हैं। ये दोनों भी जीव और पुद्गल की ही तरह दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं, जिनका कार्य है - जीव और पुद्गलों के चलने और ठहरने में सहायक होना । उक्त छः द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, इनमें हलन चलन क्रिया नहीं होती है। शेष जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य अनेक और सक्रिय हैं। जैनदर्शन वेदान्त की तरह आत्म- द्रव्य को एक व्यक्ति रूप नहीं मानता और सांख्य, न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शनों की तरह उसे निष्क्रिय भी नहीं मानता। यहाँ निष्क्रियत्व से गति-क्रिया का निषेध किया गया है, क्रिया मात्र का नहीं। जैनदर्शन के अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का अर्थ 'गतिशून्य द्रव्य' इतना ही है। गतिशून्य धर्म और अधर्म द्रव्य में भी सदृश परिणमन रूप क्रिया जैनदर्शन मानता ही है। इन दोनों में भी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मकता अर्थात् पर्यायपरिणमनता पाई जाती है। जीव और पुद्गल द्रव्य गतिमान् हैं और स्थितिमान् भी। यह गति और स्थिति-शीलता अन्य द्रव्यों में नहीं पाई जाती है। जिस समय ये गमन रूप क्रिया में परिणत होते हैं उस समय इनके इस परिणमन में बाह्य निमित्त कारण धर्मद्रव्य हुआ करता है। जैसे - जल चलती हुई मछली के चलने में सहायक होता है । उसी प्रकार जो चलते हुए जीव और पुद्गलों को चलने में सहायता करता है वह धर्मद्रव्य है; किन्तु जैसे जल ठहरी हुई मछली को चलने के लिए प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी ठहरे हुए जीव और पुद्गलों को बलात् नहीं चलाता। यह धर्मद्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से रहित है अतएव अमूर्त, समस्त लोकाकाश में व्याप्त, अखण्ड, विस्तृत और असंख्यात प्रदेशी है । जैसे - जल स्वयं गमन न करता हुआ तथा दूसरों को गतिरूप परिणमाने में प्रेरक न होता हुआ अपने आप गमन रूप परिणमते हुए मत्स्यादिक जलचर जीवों के गमन करने में उदासीन सहकारी कारण मात्र है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वयं गमन न करता हुआ तथा पर को गतिरूप परिणमाने में प्रेरक न होता हुआ, स्वयमेव गतिरूप परिणमते हुए • जीव और पुद्गलों के गमन करने में उदासीन, अविनाभूत सहकारी कारण मात्र है 185 इस प्रकार धर्मद्रव्य को गति का माध्यम कह सकते हैं। इसी प्रकार ये जीव और पुद्गल जिस समय स्थित होते हैं, उस समय इनकी स्थिति में अधर्मद्रव्य बाह्य सहायक हुआ करता है। जैसे - छाया ठहरते हुए पथिक जनों के ठहरने में सहायक होती है उसी प्रकार जो ठहरते हुए जीव और पुद्गलों नयवाद की पृष्ठभूमि :: 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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