________________
और
पुद्गल ये दोनों द्रव्य स्वयं गमन करते हैं और स्वयं स्थित भी होते हैं इसलिए ये इनके परिणाम हैं। अर्थात् गतिक्रिया और स्थिति क्रिया ये जीव और पुद्गल को छोड़कर अन्यत्र नहीं होती, इसलिए ये जीव और पुद्गल ही इन दोनों क्रियाओं के उपादान कारण हैं और धर्म तथा अधर्मद्रव्य निमित्त कारण हैं । जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादान कारण कहलाता है, किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादान कारण और निमित्त कारण इन दो के मेल से होता है, केवल एक कारण से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। छात्र सुबोध है पर अध्यापक या पुस्तक का निमित्त न मिले तो वह पढ़ नहीं सकता । यहाँ उपादान है किन्तु निमित्त नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। छात्र को अध्यापक या पुस्तक का निमित्त मिल रहा है पर वह मन्दबुद्धि है, इसलिए भी वह पढ़ नहीं सकता, यहाँ निमित्त है, किन्तु उपादान नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गति और स्थिति का कोई निमित्त कारण होना चाहिए, क्योंकि निमित्त के बिना केवल उपादान से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जैनदर्शन में धर्म और अधर्म द्रव्य माने गये हैं। धर्मद्रव्य का कार्य गमन में सहायता करना है और अधर्म द्रव्य का कार्य ठहरने में सहायता करना है ।
इन दोनों के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए दूसरी बात यह है कि जड़ और चेतन द्रव्य जो दृश्यादृश्य विश्व के खास अंग हैं, उनकी गतिशीलता तो अनुभव सिद्ध है। अगर कोई नियामक तत्त्व न हो तो वे द्रव्य अपनी सहज गतिशीलता के कारण अनन्त आकाश में कहीं भी चले जा सकते हैं। यदि वे सचमुच अनन्त आकाश में चले ही जाएँ तो इस दृश्यादृश्य विश्व का नियत संस्थान जो सदा सामान्य रूप से एकसा दृष्टिगोचर होता है, वह किसी भी तरह घट नहीं सकेगा, क्योंकि अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव भी अनन्त परिमाण विस्तृत आकाश क्षेत्र में बेरोकटोक संचरित होने से ऐसे पृथक् हो जाएँगे, जिनका असम्भव नहीं तो दुः सम्भव अवश्य हो जाएगा। यही कारण है कि गतिशील उक्त द्रव्यों की गतिमर्यादा को नियन्त्रित करने वाले तत्त्व को जैनदर्शन स्वीकार करता है और वही तत्त्व धर्मद्रव्य कहलाता है । गतिमर्यादा के नियामक रूप से उक्त धर्मद्रव्य को स्वीकार कर लेने पर स्थिति मर्यादा के नियामक रूप से अधर्म द्रव्य को भी जैनदर्शन स्वीकार कर ही लेता है ।
यदि यह कहा जाय कि आकाश द्रव्य सर्वत्र है, अतः गति और स्थिति इन दोनों का निमित्त कारण आकाश को ही मान लिया जाए, परन्तु आकाश का कार्य जीव- पुद्गलों या जगत् के जड़-चेतन पदार्थों को अवकाश - स्थान देना है न कि गति और स्थिति में निमित्त होना । इसलिए आकाश को गति और स्थिति में निमित्त
नयवाद की पृष्ठभूमि :: 47
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org