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अंश उपचरित अंश है। ऐसे ज्ञान वाले नय को उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। उपचरित सद्भूत व्यवहारनय भी ज्ञाता को एक सुन्दर दिशा की ओर ले जाता है । भले ही वहाँ पर से उपचार किया गया है, लेकिन जीव के गुण का जीव में ही आरोप किया गया है। आरोप होता है भेद की स्थिति में, जीव का ही वह ज्ञान है, लेकिन उस ज्ञान का जीव में जब आरोप किया जाता है तो बुद्धि में जीव का स्वरूप और ज्ञान का स्वरूप भिन्न-भिन्न समझा गया है और जब ज्ञान का जीव में पर का सम्बन्ध लेकर आरोप किया जाता है, तब उसे उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं।
आचार्य देवसेन की दृष्टि से कर्मजनित विकार सहित गुण- गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । 12 जैसे- जीव के मतिज्ञानादि गुण ।
अशुद्धद्रव्य में गुण- गुणी का भेद कथन करने वाला उपचरित सद्भूतव्यवहारनय है। अशुद्धद्रव्य में गुण- गुणी का प्रदेशत्व की अपेक्षा अभेद कथन करना अशुद्ध- निश्चयनय का विषय है, किन्तु संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद कथन करना सद्भूत व्यवहारनय है। दोनों ही कथन अपनी-अपनी अपेक्षा से वास्तविक हैं। इनमें से किसी का भी एकान्त ग्रहण करने से वस्तुस्वरूप का अभाव हो जायेगा; क्योंकि वस्तु भेदाभेदात्मक, अनेकान्तमयी है।
(2) असद्भूत व्यवहारनय – 'असद्भूत व्यवहारनय' इस पद में अ + सत् + भूत + व्यवहार ये चार शब्द हैं। इनका सामूहिक अर्थ है जो सत् में स्वयं अपने स्वरूप से नहीं है, उन भावों का उस सत् में प्रतिपादन करना असद्भूत व्यवहारनय है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि दूसरे द्रव्य के गुणों का बलपूर्वक दूसरे में संयोग करके, मिला करके, आरोप या उपचार करके प्रतिपादन करना असद्भूत व्यवहारनय है। इस नय की दो विधियाँ हैं - एक तो यह है कि पर निमित्त से होने वाले भावों को उस वस्तु के भाव बतलाना जिस वस्तु में वे हुए हैं। ये भाव उस वस्तु में स्वरूपतः नहीं हैं, ये उसके सहज सिद्ध भाव नहीं है, फिर भी उनको उस वस्तु के कहना असद्भूत व्यवहारनय है ।
दूसरी विधि यह है कि जिस निमित्त से विभाव उत्पन्न हुए हैं, उस निमित्त में रहने वाले गुणों का भी उस दूसरे द्रव्य में हुए भावों में निष्पत्ति बताना अर्थात् दूसरे द्रव्य के गुणों का बलपूर्वक दूसरे द्रव्य में आरोप करना असद्भूत व्यवहारनय है। ये दोनों विधियाँ इस नय के लक्षण में आती है। दूसरे द्रव्य का गुण जो आरोपित
272 :: जैनदर्शन में नयवाद
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