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________________ किया गया है वह गुण भी असद्भूत है, उसके प्रतिपादन को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। इसी प्रकार दूसरे द्रव्य के निमित्त से जो भाव हुए हैं वे विभाव उस परिणममान पदार्थ में सहज नहीं हुए हैं, वे उसके अपने स्वरूप नहीं है। स्वरूप न होकर भी उस वस्तु के बताये जा रहे हैं अत: वे भी असद्भूत व्यवहार कहलाते हैं। जैसे-क्रोधादि विकार या विभाव कर्म के निमित्त से होते हैं इसलिए मूर्त हैं तथा उन्हें जीव का कहना असद्भूत व्यवहारनय है। यहाँ अन्य द्रव्य के गुण धर्म का अन्य में आरोप किया गया है, इसलिए तो यह असद्भूत है और इस कथन में गुण-गुणी के भेद की प्रमुखता है, इसलिए यह व्यवहार है। तात्पर्य यह है कि भेद में अभेद का उपचार करना असद्भूत व्यवहारनय है। आचार्य देवसेन" ने भी ‘अन्य के धर्म का अन्य में आरोप करने को असद्भूत व्यवहारनय कहा है।' असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-अनुपचरित और उपचरित। अर्थात् अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय-जीवादिक वस्तु में सहजस्वभावत: जो भाव नहीं है उसका प्रतिपादन जब किसी पर का आलम्बन लिये बिना किया जाता है तब वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। जैसे-अबुद्धिपूर्वक होने वाली कषायों में जीव के भावों की विवक्षा करना, वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। ये क्रोधादिक विकारभाव कर्मोदय का निमित्त पाकर होते हैं। अतएव ये जीव के नहीं कहे जा सकते। यद्यपि कषाय भाव जीव में ही परिणम रहे हैं, परन्तु केवल जीव में जीव के ही निमित्त से स्वरूपतः उत्पन्न नहीं हो रहे हैं, अतएव ये जीव के नहीं कहे जाते, इस कारण ये असद्भूत हैं, ऐसे असद्भूत भावों को बिना उपचार के प्रतिपादन करना अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है।। _ इन विकार भावों में अनुपचरितता इस ढंग से आती है कि ये विकार भाव दो प्रकार के होते है-एक बुद्धि गत और दूसरे अबुद्धिगत। जो भाव बुद्धि में आ रहे हैं, स्थूलता से उदय में आ रहे हैं, जिनके विषय में हम परिज्ञान कर सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं, वे बुद्धिगत हैं। ये कषायें हुई हैं' ऐसे बुद्धिगत भाव तो हैं उपचरित, किन्तु जो विकारभाव अबुद्धिगत हैं, जहाँ ये विकार सूक्ष्मता से आश्रय में आ रहे हैं, जिनके सम्बन्ध में यह निर्णय भी नहीं हो पाता कि 'ये हैं क्रोधादिक भाव' ऐसे अबुद्धिगत भावों को जीव के बताना, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। इस उदाहरण में 'विकारभावों को जीव के कहना 'इतना अंश तो असद्भूत व्यवहारता का है और ये भाव जीव (सत्) में सहजस्वभावतः उत्पन्न नहीं हुए, फिर भी उन्हें जीव के कहना यह अंश असद्भूतता का है। और नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 273 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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