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________________ किया जा सकता है। जैसे—दर्पण में सामने आये हुए पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ा, उस समय दर्पण उस पदार्थाकार हो गया। सभी दर्शक जानते हैं कि वह पदार्थ प्रतिबिम्बित है, लेकिन दर्पण में उस रूप का प्रतिबिम्बित हो जाना यह दर्पण का ही स्वभाव है, दर्पण की ही परिणति है । पदार्थ का प्रतिबिम्ब दर्पण में पड़ा; किन्तु दर्पण उस पदार्थ रूप नहीं हो जाता । दर्पण प्रतिबिम्बित होने पर भी अपने ही स्वरूप में है, प्रतिबिम्ब वाले पदार्थरूप नहीं बन गया । उसका प्रतिबिम्ब न होने पर भी दर्पण अपने रूप में ही है । पदार्थाकार होने के समय दर्पण में उस पदार्थ का कोई नहीं आया या दर्पण के कोई गुण उस पदार्थ में नही पहुँच गये। इसी प्रकार ज्ञान में कोई पदार्थ प्रतिभासित हो जाय तो उस पदार्थ रूप या उस पदार्थ के गुण रूप यह ज्ञान नहीं बन जाता । ज्ञान तो अपने ज्ञान स्वरूप ही रहता है। ज्ञान जीव का गुण और वह अन्य पदार्थ निरपेक्ष है। इस पद्धति से समझा गया गुण-गुणी का प्रकार अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । आचार्य देवसेन ने भी इसी प्रकार इस नय का लक्षण किया है— उपाधि रहित अर्थात् कर्मजनित विकार रहित जीव में गुण और गुणी के भेद रूप विषय को ग्रहण करने वाला अनुपचरित - सद्भूत व्यवहारनय है । जैसे— जीव के केवलज्ञान आदि गुण 140 शुद्ध गुण-गुणी में भेद कथन करना अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। प्रदेशत्व की अपेक्षा शुद्ध गुण-गुणी में अभेद कथन करना शुद्ध निश्चयनय का विषय है, किन्तु संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद कथन करना अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । अपनी-अपनी अपेक्षा दोनों ही कथन यथार्थ हैं। इनमें से किसी एक का भी एकान्त ग्रहण करने से वस्तुस्वरूप का लोप हो जाएगा, क्योंकि वस्तु भेदाभेदात्मक, अनेकान्तमयी है । उपचरित सद्भूत व्यवहारनय" - जिस पदार्थ का जो गुण है उसे उस पदार्थ का ही बताना, लेकिन किसी पर का नाम लेकर उनका व्यवहार करना उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। इस व्यवहारनय में अविरुद्ध उपचार की बात हुआ करती है, इसमें सही उपचार होता है, किन्तु वस्तु का गुण वस्तु के अस्तित्व पर ही निर्भर रहता है, किसी अन्य पर नहीं । ऐसे स्वतन्त्र गुण को भी किसी पर - पदार्थ के सम्बन्ध से प्रतिपादित करने की नीति को उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। जैसे—घटज्ञान । यहाँ ज्ञान को जीव का गुण बताया गया है, यह अंश तो सद्भूत है और 'जीव का ज्ञान' इस तरह गुण गुणी का भेद किया गया है, यह व्यवहार का अंश है तथा वह गुण जीव में घट का नाम लेकर उपचरित किया गया, यह नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद - प्रभेद :: 271 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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