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________________ है, किन्तु प्रदेश सत्ता भिन्न नहीं है, इसलिए एक वस्तु है। उस एक वस्तु में गुणगुणी का संज्ञादि की अपेक्षा से भेद करना सद्भूत व्यवहारनय का विषय है। जैसेजीव के ज्ञान, दर्शनादि गुण और पुद्गल के रूप, रसादि गुणों का कथन करना। व्यवहारनय के इन दोनों प्रकारों में यह सद्भूत व्यवहारनय एक विशुद्ध व्यवहार है और यथार्थ वस्तुस्वरूप के निकट का व्यवहार है। सद्भूत व्यवहारनय के दो भेद हैं -अनुपचरित और उपचरित। अर्थात् अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय और उपचरित सद्भूत व्यवहारनय। यहाँ उपचरित और अनुपचरित के अर्थ को समझ लेना आवश्यक है। जब किसी वस्तु का परिज्ञान किसी अन्य द्रव्य के आलम्बन से होता है तब वह पद्धति उपचरित कहलाती है और जब किसी वस्तु का परिज्ञान अन्य द्रव्य के आलम्बन के बिना होता है तब वह पद्धति अनुपचरित कहलाती है। अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय -जिस पदार्थ के अन्दर जो शक्ति है उसका निरूपण जब किसी अन्यविशेष की अपेक्षा के बिना होता है तो इस पद्धति को अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं। सत् (पदार्थ) में जो स्वयं हो उसका व्यवहार करना सद्भूत व्यवहार है। यही सद्भूत व्यवहार जब किसी अन्य तथ्य का आलम्बन लिए बिना सीधे सामान्य पद्धति से होता है तब वह अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। यह व्यवहारनय परमार्थभूत तत्त्व के परिज्ञान के लिए निकटतम पद्धति है। जैसे-ज्ञान जीव का गुण है। यह ज्ञान गुण जीव में शाश्वत, अनादि अनन्त रहता है। इस ज्ञान के द्वारा घट को जाना। यह घट विषयक ज्ञान घट के सद्भाव में हुआ तो यह घटाकार प्रतिभास होने पर भी वह ज्ञान जीव का घट निरपेक्ष गुण है। जीव में जो भी ज्ञान व्यक्त हुआ है वह घट की अपेक्षा रखकर नहीं हुआ है। वह ज्ञान आत्मा का उस समय का परिपूर्ण परिणमन है, उस ज्ञान का कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ये सब इसमें गुणी हैं। ज्ञान को किसने किया? इस ज्ञानी ने। इस ज्ञानी ने अपने अभिन्न कर्म को ही किया। अपनी ही ज्ञान परिणति के द्वारा किया, अपने ही जानने के लिए किया और अपनी ही पूर्व पर्यायों से चलकर इस पर्यायरूप में ज्ञान किया और ये सब परिणति अपने में ही हुई। इसप्रकार यह ज्ञान किसी अन्य पदार्थ से या उदाहृत घट से नहीं हुआ, किन्तु यह ज्ञान जीव का घट निरपेक्ष गुण है। घट को विषय करने से यह ज्ञान घट रूप नहीं हो जाता। घटाकार होना तो इसका स्वभाव है। जितने भी प्रमेय हैं सब ही का प्रतिभास होना ज्ञान का स्वरूप है। इस उदाहरण को और भी स्पष्ट करने के लिए एक दर्पण का दृष्टान्त प्रस्तुत 270 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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