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________________ शुद्धस्वरूप से ही जानता है, वस्तु को विकारों से पृथक् देखता है। वस्तु को शुद्धस्वरूप में देखना ही इस नय का काम है। जैसे-जीव के विकार परिणमनों को जीव के न बताकर पुद्गल के ही बताना। इन समस्त पौद्गलिक रागादि विकारों से रहित एक शुद्ध जीव को जानना शुद्धनिश्चयनय है। ___व्यवहारनय को गौणकर अर्थात् भेद-विधि से जानने का उपयोग न करके निश्चयनय को मुख्यकर अभेद-विधि से जानते हुए परमशुद्ध निश्चयनय को प्राप्त कर वहाँ रहने वाले स्वभाव के एक विकल्प को भी अतिक्रान्त कर जब स्वानुभव प्राप्त हो जाता है तब संकल्प विकल्प को ध्वस्त करता हुआ शुद्धनय उदित होता है। इसके परिणामस्वरूप ही प्रमाण-नय-निक्षेप के सभी विकल्प विलीन हो जाते हैं और यह शुद्धात्मा स्वयं प्रमाण स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार की यह ज्ञानस्थिति शुद्धनय है। शुद्धनय की अवस्था में कोई भेद या प्रकार नहीं होता, वहाँ तो नयविकल्प से अतिक्रान्त अखण्ड अन्तस्तत्त्व का अभेददर्शन होता है। व्यवहारनय के भेद-भेदविधि से वस्तु को जानने वाले नय को व्यवहारनय कहते हैं। व्यवहारनय का विषय भेद और उपचार है। इस नय के मुख्य रूप से दो भेद हैं-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय। (1) सद्भूत व्यवहारनय -सद्भूत का अर्थ है सत् में रहने वाले गुण और उनकी वृत्ति का नाम है व्यवहार अर्थात् पदार्थ में रहने वाले गुणों का प्रतिपादन करना, उनका परिज्ञान करना सद्भूत व्यवहारनय है। वस्तु स्वयं अपने आप में एक निज अखण्डरूप है। उस वस्तु के गुण जानकर उसी वस्तु में बताना सद्भूत व्यवहारनय है। यह व्यवहारनय यथार्थ है; क्योंकि यह नय वस्तु के असाधारण गुणों का विवेचन करता है। जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, श्रद्धा, चारित्र आदि अनेक गुण हैं, इन गुणों से विशिष्ट अखण्ड आत्मा के गुणों का प्रतिपादक सद्भूत व्यवहारनय है। अखण्ड वस्तु के गुणों का प्रकाशक होने के कारण ही यह नय यथार्थ कहा जाता है, पर इसमें उपचारपना इस कारण से है कि यह अखण्डवस्तु में गुण-गुणी का भेद करता है। वस्तुतः गुण गुणी (द्रव्य) से भिन्न नहीं है फिर भी कथन में जो गुण-भेद करना पड़ता है इतने मात्र से इसे अयथार्थ या असत्यार्थ कहते हैं। - आचार्य देवसेन ने एक सत्तावाले पदार्थों को या एक वस्तु को विषय करने वाले को सद्भूत व्यवहारनय कहा है। जैसे-वृक्ष एक है, उसमें लगी हुई शाखाएँ आदि यद्यपि भिन्न हैं तथापि वृक्ष ही हैं। उसी प्रकार सद्भूत व्यहारनय गुण-गुणी का भेद कथन करता है। गुण-गुणी का संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 269 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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