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________________ की प्राप्ति शुद्धय से ही हो सकती है । यही शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति का उपाय है; क्योंकि अध्यात्म का लक्ष्य है आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्रतीति, अनुभूति और प्राप्ति। वह निश्चयनय के बिना सम्भव नहीं है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन उसी से होता है। इसी से उसे शुद्धनय भी कहा है । उसका स्वरूप आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है—' रागादि भावों से भिन्न, अपने गुणों से परिपूर्ण, आदि और अन्त से रहित, एक तथा समस्त संकल्प - विकल्पों के जाल से विमुक्त आत्म स्वभाव को प्रकाशित करता हुआ वह शुद्धनय उदित होता है। 26 आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्त विमुक्तमेकम् । विलीन-संकल्प-विकल्प-जालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति । 110 11 1 यह शुद्धनय आत्मा के यथार्थ स्वाभाविक रूप को ही ग्रहण करता है। उसका वह स्वाभाविक रूप ही उपादेय होता है । उसी की प्राप्ति के लिए संसारी जीव प्रयत्न करता है। अतः वही स्वरूप ध्यान करने योग्य है। जो व्यक्ति जैसा होना चाहता है वैसा ही सतत चिन्तन करता है। शुद्ध स्वर्ण की प्राप्ति का इच्छुक खान से स्वर्णपाषाण प्राप्त करके भी पाषाण को उपादेय नहीं मानता, स्वर्ण को ही उपादेय मानता है। अतः उसके लिए सबसे प्रथम तो उस दृष्टि की उपयोगिता है जो स्वर्णपाषाण दशा में भी शुद्धस्वर्ण की पहचान कराती है। शुद्धस्वर्ण की पहचान हो जाने पर वह उसे अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देता और उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । इसी प्रकार मुमुक्षु भी निश्चयदृष्टि के द्वारा कर्मलिप्त आत्मअवस्था में भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप के दर्शन करके सतत उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । उसी का ध्यान करने की चेष्टा में रहता है और अपनी असमर्थतावश अन्य सविकल्पक ध्यान करते हुए भी उसी आत्म स्वरूप को एक मात्र ध्येय मानता है, तभी वह अपने ध्येय को प्राप्त करने में समर्थ होता है । इस प्रकार शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए निश्चयनय या शुद्धनय की उपयोगिता सिद्ध होती है। वही उपादेय है, साध्य है, किन्तु जिन जीवों को इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी है, जो अज्ञान दशा में ही पड़े हुए हैं, उनको सुमार्ग पर लाने के लिए, आत्मस्वरूप ही पहचान कराने के लिए व्यवहारनय उपयोगी है। इसी को समयसार की दार्शनिक भाषा में यों कहा जा सकता है कि 'जो परमभावदर्शी हैं अर्थात् शुद्धनय को प्राप्त कर पूर्ण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रवान् हैं उनके लिए तो शुद्धतत्त्व का कथन करने वाला शुद्धनय ही ग्राह्य है, किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के पूर्ण भाव को प्राप्त नहीं कर सके हैं, अभी 260 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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