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स्पृष्टपना अभूतार्थ है; क्योंकि कमलिनी का पत्र जल से सदा अस्पृष्ट ही रहता है। इसी तरह आत्मा की अनादि पुद्गल कर्मों से बद्ध और स्पृष्ट अवस्था का जब अनुभव करते हैं तो आत्मा का बद्धपना, स्पृष्टपना भूतार्थ है, किन्तु जब आत्मा के स्वभाव का अनुभव करते हैं तो बद्ध - स्पृष्टपना अभूतार्थ है। 5
आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं - एक स्वाभाविक और एक वैभाविक । स्वाभाविक अवस्था यथार्थ होने से भूतार्थ है और वैभाविक अवस्था औपाधिक होने
अभूतार्थ है । भूतार्थग्राही निश्चयनय है और अभूतार्थग्राही व्यवहारनय है । यद्यपि आत्मा अनादि काल से कर्म पुद्गलों से बद्ध और स्पृष्ट होने से बद्ध और स्पृष्ट प्रतीत होता है; कर्म के निमित्त से होने वाली नर-नारकादि पर्यायों में भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होता है; दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों में विशिष्ट प्रतीत होता है तथा कर्म के निमित्त से होने वाले राग-द्वेष - मोह रूप परिणामों से संयुक्त प्रतीत होता है। इस तरह व्यवहारनय से आत्मा बुद्ध, स्पृष्ट, अन्यरूप, अनियत, विशिष्ट और संयुक्त प्रतीत होता है । व्यवहारनय से ये सब प्रतीतियाँ भूतार्थ हैं, किन्तु व्यवहारदृष्टि से ज्ञायक स्वभाव रूप आत्मा को नहीं जाना जा सकता। अतः आत्मा के असाधारण ज्ञायक स्वभाव को लक्ष्य में रखने पर उक्त सब भाव अभूतार्थ हैं।
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सारांश यह है कि परद्रव्य के सम्बन्ध से अशुद्धता होती है, किन्तु उसके होने मूलद्रव्य, अन्य द्रव्यरूप नहीं हो जाता, केवल परद्रव्य के संयोग से अवस्था मलिन हो जाती है । द्रव्यदृष्टि से तो उस अवस्था में भी द्रव्य वही है, किन्तु पर्यायदृष्टि से देखने पर मलिन ही दिखाई देता है । इसी तरह आत्मा का स्वभाव ज्ञायक मात्र है, किन्तु पुद्गल कर्म के निमित्त से उसकी अवस्था रागादिरूप मलिन हो रही है। पर्यायदृष्टि से देखने पर वह मलिन ही दिखाई देती है, किन्तु द्रव्यदृष्टि से देखने पर ज्ञायकरूप ही है, वह जड़रूप नहीं हो गया है। अतः द्रव्यदृष्टि में अशुद्धता गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचरित है और द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।
तथ्य यह है कि शुद्धता और अशुद्धता दोनों वास्तविक हैं, किन्तु अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होने से आगन्तुक है जबकि शुद्धता स्वभावभूत है। इस अन्तर के कारण ही एक अभूतार्थ है और दूसरी भूतार्थ । जो नय अभूतार्थ अशुद्धदशा का अनुभव कराता है वह हेय है; क्योंकि अशुद्ध नय का विषय संसार है और शुद्धनय का विषय मोक्ष है। शुद्धनय की अपेक्षा आत्मा अपने एकपने में नियत है, स्वकीय गुण - पर्यायों में व्याप्त है तथा पूर्ण चैतन्य पिण्ड है। ऐसे आत्मा का आत्मातिरिक्त पदार्थों से पृथक् अनुभव करना ही भेद विज्ञान है । इस भेद विज्ञान
नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 259
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