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________________ भी कहते हैं। तथा अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ है। अभूतमविद्यामानमसत्यं या अर्थ भावं कथयति यः सोऽभूतार्थ:' जो ‘अभूत' अर्थात् पदार्थ में न पाये जाने वाले 'अर्थ' . यानि भाव को प्रकाशित करता है, उसमें अनेक कल्पना करके कहता है उसे अभूतार्थ कहते हैं। जैसे कोई मिथ्यावादी जरा से कारण का बहाना लेकर उसमें अनेक कल्पना करके बताता है। उसी प्रकार जैसे जीव और पुद्गल की सत्ता भिन्न है, स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न है, फिर भी एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध का बहाना लेकर व्यवहारनय आत्मा और शरीर को एक कहता है, किन्तु मुक्त अवस्था में स्पष्ट भिन्नता होती है। अतएव व्यवहारनय अभूतार्थ है। इसीलिए इसको असत्यार्थ भी कहते हैं। इस विषय को आचार्य अमृतचन्द्र ने एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है, जिस प्रकार कीचड़ से कलुषित हुए गँदले जल को कीचड़ और जल का भेद न कर सकने वाले अधिकांश मनुष्य तो मलिन ही अनभव करते हैं, किन्तु कुछ मनुष्य अपने हाथ से डाली गयी निर्मली के प्रभाव से जल और मैल के भेद को जानकर उस जल को निर्मल ही अनुभव करते हैं, उसी तरह प्रबल कर्म रूपी मैल के द्वारा जिसका स्वाभाविक ज्ञायक भाव तिरोभूत हो गया है ऐसे आत्मा का अनुभव करने वाला व्यवहार से विमोहितमति अविवेकी पुरुष आत्मा को नानापर्यायरूप अनुभव करता है। किन्तु भूतार्थदर्शी मनुष्य शुद्धनय के द्वारा आत्मा और कर्म का भेद जानकर ज्ञायक स्वभाव आत्मा को ही अनुभव करता है। यहाँ शुद्धनय निर्मली के समान है। अतः जो शुद्ध नय का आश्रय करता है वही सम्यक् द्रष्टा होने के कारण सम्यग्दृष्टि है, किन्तु जो व्यवहारनय का आश्रय करता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। अतः कर्म से भिन्न आत्मा का अनुभव करने वालों के लिए व्यवहारनय का अनुसरण करना योग्य नहीं है। इस व्याख्या से अध्यात्म में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ मानने का तथा एक को उपादेय और दूसरे को हेय कहने का हेतु स्पष्ट हो जाता है। निश्चयनय आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव कराता है इसलिए उसे शुद्धनय भी कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धनय का स्वरूप बतलाते हुए कहा है, 'जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और पर के संयोग से रहित जानता है उसे शुद्धनय जानो।14 इस पर टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र एक दृष्टान्त द्वारा इसे स्पष्ट करते हैं, 'जैसे जल में डूबे हुए कमलिनी के पत्तों की जल में डूबी हुई अवस्था को देखते हुए उनका जल से स्पृष्ट होना भूतार्थ है, किन्तु जब हम कमलिनी के पत्तों के स्वभाव को लक्ष्य में रखकर देखते हैं तो उनका जल से 258 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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