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तात्पर्य यह है कि जो अपने ही आश्रय से हो उसे निश्चय कहते हैं। जिस द्रव्य के अस्तित्व में जो भाव पाये जाएँ, उस द्रव्य में उनका ही स्थापन करना तथा परमाणु मात्र भी अन्य कल्पना न करना स्वाश्रित है। इसका कथन ही मुख्य (निश्चय) कथन कहलाता है। इसको जानने से अनादि शरीरादि पर द्रव्य में एकत्व श्रद्धान रूप अज्ञान भाव का अभाव हो जाता है और भेद विज्ञान की प्राप्ति होती है तथा समस्त पर द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप का अनुभव होता है, तब यह शुद्धात्मा परमानन्द दशा में मग्न होकर कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है, किन्तु जो अज्ञानी जन इसको जाने बिना धर्म में प्रवृत्ति करते हैं, वे शरीराश्रित क्रिया-काण्ड कोही उपादेय जानकर, संसार के कारण स्वरूप शुभोपयोग को ही मुक्ति का कारण मानकर अपने स्वरूप से भ्रष्ट होते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं । अत: निश्चयनय का परिज्ञान आवश्यक है।
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इसी प्रकार जो परद्रव्य के आश्रित हो उसे व्यवहार कहते हैं। किंचित् मात्र भी कारण पाकर अन्य द्रव्य का भाव अन्यद्रव्य में आरोपित करना पराश्रित कहलाता है। इसी के कथन को उपचार या गौण कथन कहते हैं। इसे जानकर ज्ञानीजन शरीरादि के साथ सम्बन्ध रूप संसारदशा का ज्ञान करके संसार के कारण स्वरूप आस्रव-बन्ध को पहिचानकर और मुक्त होने के उपायरूप जो संवर और निर्जरा हैं, उनमें प्रवर्तन करे । अज्ञानीजन इन्हें जाने बिना शुद्धोपयोगी होने की इच्छा करता है, वह पहले ही व्यवहार साधन को छोड़ पापाचरण में लीन होकर नरकादि के दुःखों का पात्र बनता है । इसलिए उपचार या व्यवहार कथन का भी परिज्ञान आवश्यक है।
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'आचार्य कुन्दकुन्द" और उनके भाष्यकार आचार्य अमृतचन्द्र' 2 ने निश्चयनय को भूतार्थ या सत्यार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ या असत्यार्थ कहा है । भूतार्थ और अभूतार्थ का व्युत्पत्त्यर्थ इसप्रकार किया जा सकता है, 'भूतं विद्यमानं सत्यं वा अर्थं भावं कथयति यः स भूतार्थः ' जो 'भूत' अर्थात् पदार्थ में पाये जाने वाले 'अर्थ' (भाव) को जैसे का तैसा (बिना किसी कल्पना या जोड़-तोड़ के) कहता है वह
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भूतार्थ है । जैसे - कोई सत्यवादी सत्य ही कहता है, जो बात जैसी है उसको बिना . किसी कल्पना किये वैसे ही कहता है, उसमें थोड़ी सी भी मिलावट नहीं करता है। इसी प्रकार जीव और कर्म या पुद्गल का अनादि काल से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, दोनों मिले हुए से दिखाई पड़ते हैं, फिर भी निश्चयनय आत्मद्रव्य को शरीरादि परद्रव्यों से भिन्न ही प्रकाशित करता है । वही भिन्नता मुक्त अवस्था में प्रकट होती है। अतएव निश्चयनय भूतार्थ है, इसीलिए इसको सत्यार्थ
नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 257
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