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कि आत्मा के गुण दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं। निश्चय से देखा जाये तो आत्मद्रव्य अनन्त धर्मों को इस तरह पिये हुए बैठा है कि उसमें भेद नहीं है, किन्तु भेद का अवलम्बन - किये बिना व्यवहारी जीव को आत्मा के स्वरूप की प्रतीति नहीं कराई जा सकती। अतः जहाँ तक वस्तुस्वरूप को जानने की बात है वहाँ तक ही व्यवहारनय की उपयोगिता है, किन्तु जब तक व्यवहार का अवलम्बन है तब तक आत्मा के यथार्थस्वरूप की प्राप्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि व्यवहारनय भेद दृष्टि प्रधान है
और भेद दृष्टि में निर्विकल्प दशा नहीं होती तथा सरागी के जब तक रागादि दूर नहीं होते तब तक निर्विकल्प दशा प्राप्त नहीं होती। इसलिए अभेदरूप निर्विकल्प दशा में पहुँचने के लिए निश्चयनय की उपयोगिता है। वीतराग होने के पश्चात् तो नय का अवलम्बन ही छूट जाता है।
जिन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का उल्लेख आगम में वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक रूप में किया गया है वे ही अध्यात्म में निश्चय और व्यवहारनय के रूप में कहे गये हैं। जैसे-द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य है वैसे ही निश्चयनय का विषय भी शुद्ध द्रव्य है और जैसे पर्यायार्थिक नय का विषय पर्याय है वैसे ही व्यवहारनय का विषय भी भेद-व्यवहार है। व्यवहार शब्द का अर्थ ही भेद करना है। अखण्ड वस्तु में वस्तुत: भेद करना तो अशक्य है, क्या कोई आत्मा के खण्डखण्ड कर सकता है ? किन्तु शब्द के द्वारा अखण्ड एक वस्तु में भी भेद-व्यवहार सम्भव है। जैसे-आत्मा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण हैं अर्थात् गुण और गुणी या द्रव्य और पर्याय के भेद से अभिन्न वस्तु में भी भेद की प्रतीति होती है। यह भेद-व्यवहार भी व्यवहारनय की मर्यादा के ही अन्तर्गत है। यद्यपि इसे अशुद्ध निश्चयनय का भी विषय बतलाया है किन्तु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहारनय में ही आता है।
इसके अतिरिक्त भी निश्चय और व्यवहारनय के लक्षण किए गये हैं। जो शुद्ध द्रव्य का निरूपण करता है वह निश्चयनय है और जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करता है वह व्यवहारनय है। इसी से निश्चयनय को शुद्ध नय और व्यवहारनय को अशुद्धनय भी कहते हैं। अशुद्धनय के अवलम्बन से अशुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है और शुद्धनय का अवलम्बन करने से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है अथवा जो स्वाश्रित है वह निश्चयनय है और जो पराश्रित है वह व्यवहारनय है।
__ आत्मा के पर के निमित्त से जो अनेक भाव होते हैं वे सब व्यवहारनय के विषय हैं इसीलिए व्यवहारनय पराश्रित है और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वही निश्चयनय का विषय है इसीलिए निश्चयनय आत्माश्रित या स्वाश्रित है।
256 :: जैनदर्शन में नयवाद
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