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________________ व्यवहारनय को ही उपचार कहा जाता है । यह उपचार दो प्रकार है । - - भेदोपचार और अभेदोपचार। अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि का भेद करना भेदोपचार है तथा भिन्न वस्तुओं में प्रयोजनवश एकता या अभिन्नता का व्यवहार अभेदोपचार कहलाता है । इनका प्रयोग लौकिक क्षेत्र में और आगम में नित्य स्थान-स्थान पर किया जाता है। उक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार वस्तु में सम्भवनीय अभेद रूपता - भेदरूपता, स्वाश्रयरूपता-पराश्रयरूपता, अनुपचाररूपता - उपचाररूपता, अखण्डरूपता - खण्डरूपता, तद्रूपता-अतद्रूपता, सामान्यरूपता - विशेषरूपता, द्रव्यरूपता-पर्यायरूपता, मुख्यरूपतागौणरूपता आदि परस्परविरुद्ध धर्मयुगलों मे पूर्व-पूर्व धर्म तो निश्चय शब्द का और उत्तर धर्म व्यवहार शब्द का अर्थ समझना चाहिए । निश्चय और व्यवहारनय का स्वरूप तथा उनकी उपयोगिता - अभेद विधि से वस्तु को जानने वाले नय को निश्चयनय कहते हैं और भेद - विधि से वस्तु के जानने वाले नय को व्यवहारनय कहते हैं अर्थात् गुण-गुणी का या पर्यायपर्यायी का भेद करके जो वस्तु को जानता है वह व्यवहारनय है । जैसे- जीव के ज्ञान, दर्शन आदि गुण तथा नर, नारकादि पर्यायों का भेद करके कथन करना, पुद्गल द्रव्य के मूर्तिक गुणों को जीव में बतलाना और जीव के चेतन गुण को पुद्गल में बतलाना । जैसे— जीव के रूप, रस गन्धवान् और शरीर को ही चेतन कहना । इसप्रकार उपचार (आरोप) करके वस्तु को ग्रहण करना व्यवहारनय का विषय है और भेद तथा उपचार की अपेक्षा से रहित अखण्ड द्रव्य निश्चयनय का विषय है । जैसे आगम में वस्तुस्वरूप को जानने के लिए द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं वैसे ही अध्यात्म में आत्मा को जानने के लिए निश्चय और व्यवहारनय हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार अद्वैत वेदान्त में परमार्थ और व्यवहार पद्धति से तत्त्व विवेचन किया जाता है उसी प्रकार जैन अध्यात्म में भी तत्त्व विवेचन के लिए निश्चय और व्यवहार पद्धति को अपनाया गया है। इन दोनों में केवल इतना ही भेद है कि जैन अध्यात्म का निश्चयनय वास्तविक स्थिति को स्वीकार कर अन्य पदार्थों के अस्तित्व का निषेध नहीं करता, जबकि अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को ही परमार्थ सत्य स्वीकार करता है और उसके अतिरिक्त अन्य की सत्ता उसे स्वीकार नहीं । जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनेक धर्मों का एक अखण्ड पिण्ड है। धर्मी वस्तु और उसके अनेक धर्म भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जो नय उनमें भेद का उपचार करता है वह व्यवहारनय है और जो ऐसा न करके वस्तु को उसके स्वाभाविक रूप में ग्रहण करता है वह निश्चयनय है । आत्मा अनन्त धर्म रूप एक अखण्डधर्मी है, परन्तु व्यवहारी जन अभेदरूप वस्तु में भी भेद का व्यवहार करके ऐसा कहते हैं नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 255 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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