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________________ कहा है- 'सब नयों के मूल निश्चय और व्यवहार ये दो नय हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, ये दोनों निश्चयनय के साधन या हेतु हैं।" इसप्रकार अध्यात्मनय निश्चय और व्यवहार ये दोनों हैं। इनका यहाँ विवेचन किया जाता है। निश्चय और व्यवहार शब्दों का व्युत्पत्त्यर्थ - 'निश्चय' शब्द 'निस्' उपसर्ग पूर्वक चयनार्थक 'चिञ्' धातु से 'अप्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है, जिसकी व्युत्पत्ति है, 'निर्गतः चयः यस्मात् स निश्चयः' अर्थात् जिसमें अन्य कुछ न जोड़ा जाए या जिससे भेद निकल गया है अर्थात् जो अभेद रूप से वस्तु का कथन करने वाला है वह निश्चय नय है अथवा 'नि:शेषेण चयः निश्चय: ' अर्थात् जिसमें से कुछ निकाला न जाए, उसे परिपूर्ण ही रहने दिया जाए। इस प्रकार 'निश्चय' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ हुआ कि जहाँ जोड़-तोड़ न किया जाए, वस्तु का जैसा स्वरूप है उसे वैसा ही जाना जाए वह निश्चयनय है। इसकी व्युत्पत्ति अन्य प्रकार से भी की गयी है,‘जिसके द्वारा अभेद और अनुपचार रूप से वस्तु का निश्चय किया जाता है उसे निश्चयनय कहते हैं । इसी प्रकार 'व्यवहार' शब्द 'वि' तथा 'अव' उपसर्गपूर्वक हरणार्थक 'हृञ्' धातु से 'ण' 'प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जिसकी व्युत्पत्ति है, 'वि-विधिपूर्वकम् अव-अवहरणं भेदः व्यवहारः' अर्थात् विधिपूर्वक अवहरण यानि भेद करना व्यवहार है। आचार्य देवसेन ने भी व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है- 'जिसके द्वारा भेद और उपचार रूप से वस्तु का व्यवहार किया जाता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। ” उपचार का अर्थ है अन्य वस्तु के धर्म को प्रयोजनवश अन्य वस्तु में आरोपि करना । जैसे मूर्त पदार्थों से उत्पन्न ज्ञान को मूर्त कहना अथवा मुख्य के अभाव में किसी पदार्थ के स्थान पर अन्य का आरोप करना उपचार कहलाता है। जैसेसंश्लेषसम्बन्ध के कारण शरीर को ही जीव कहना अथवा निमित्त के वश से किसी अन्य पदार्थ को अन्य का कहना उपचार है। जैसे घी का घड़ा कहना । घड़ा घी का तो नहीं होता, वह तो मिट्टी का बना हुआ होता है, किन्तु उसमें घी रखा जाने के कारण उपचार से मिट्टी निर्मित घड़े को भी घी का घड़ा व्यवहार चलाने के लिए कह दिया जाता है। इसप्रकार यह उपचार एक द्रव्य का अन्य द्रव्य में, एक गुण का अन्य गुण में, एक पर्याय का अन्य पर्याय में, स्वजाति-द्रव्य, गुण, पर्याय का विजाति- द्रव्य, गुण, पर्याय में, सत्यासत्य पदार्थों के साथ सम्बन्ध रूप में, कारण का कार्य में, कार्य का कारण में इत्यादि अनेक प्रकार से होता है। यद्यपि यथार्थ दृष्टि से देखने पर यह मिथ्या है, परन्तु अपेक्षा या प्रयोजन की दृष्टि से विचार करें तो कथंचित् सम्यक् है । इसी से उपचार को भी एक नय स्वीकार किया गया है। 254 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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