SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधक अवस्था में ही हैं या जिनका ऐसा लक्ष्य ही नहीं है उनको सम्बोधने के लिए व्यवहारनय उपयोगी है, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।" निश्चय और व्यवहार ये दोनों ही नय अपने-अपने विषय की दृष्टि से तत्त्वबोधक हैं। जो जीव निश्चय और व्यवहार को ठीक प्रकार से समझकर एकान्त पक्ष का परित्याग करता है और मध्यस्थ वृत्ति को ग्रहण करता है वही शुद्धात्म स्वरूप को समझकर उसे प्राप्त कर सकता है। अतः वस्तु स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए दोनों नयों का आलम्बन आवश्यक है। आत्मश्रद्धा या आत्मानुभूति के समय निश्चयनय का अवलम्बन उपादेय है और व्यवहारनय का अवलम्बन हेय है। किन्तु जब तक वह अवस्था प्राप्त नहीं हुई है तब तक व्यवहारनय का अवलम्बन भी उपादेय है। इसप्रकार उभयनयों का अवलम्बन अपेक्षा भेद से आवश्यक है। इसी बात को आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्तगाथा की व्याख्या करते हुए एक उद्धरण द्वारा कहा है, 'हे भव्य जीवो! यदि जिन मत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय, दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ यानि व्यवहारमार्ग का ही नाश हो जाएगा और निश्चयनय के बिना तत्त्व यानि वस्तुस्वरूप का ही विनाश हो जाएगा। ___ साधनावस्था में दोनों ही नय उपयोगी हैं। दोनों की सापेक्षता में ही साध्य की सिद्धि हो सकती है। वास्तव में दोनों में ही साध्य-साधन सम्बन्ध पाया जाता है। निश्चयसाध्य है और व्यवहार उसका साधन है। साधन के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती। जैसे कोई व्यक्ति किसी ऊँची मंजिल पर पहँचना चाहता है तो उसे किसी सीढ़ी का ही सहारा लेना पड़ेगा, बिना सीढ़ी के सहारे मंजिल पर नहीं पहुँच सकता, वैसे ही प्रारम्भ में व्यवहारनय का अवलम्बन लिये बिना निश्चय की प्राप्ति सम्भव नहीं है, किन्तु व्यवहार के द्वारा निश्चय की प्राप्ति तभी होगी जब निश्चय की ओर लक्ष्य होगा और जैसे मनुष्य सीढ़ी पर पैर इसलिए रखता है कि उसे छोड़ता हुआ आगे की ओर बढ़ता चला जाय। यदि कोई सीढ़ी को ही पकड़कर बैठ जाय और उसके द्वारा मंजिल पर चढ़ने की बात भुला बैठे तो वह त्रिकाल में भी मंजिल पर नहीं पहुँच सकता। उसी तरह यदि कोई निश्चय के लक्ष्य को भुलाकर व्यवहार को ही साध्य मानकर उसी में रम जाता है तो उसका व्यवहार निश्चय का साधक नहीं है। जो साधक निश्चय पर लक्ष्य रखकर उसी की प्राप्ति के लिए तन्मय होता हुआ अन्यगति न होने से व्यवहार को अपनाता है वह उसे उपादेय समझ कर नहीं अपनाता, हेय समझ कर ही अपनाता है। ऐसा ही व्यवहार नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 261 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy