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________________ विश्लेषण किया गया है। उक्त नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चारों नयों को अर्थनय कहा गया है; क्योंकि ये अर्थग्राही होने से इनकी दृष्टि अर्थ पर ही होती है। और शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूतनय ये तीन नय शब्दनय कहे गये हैं, क्योंकि इनके विषय शब्द के वाच्यभूत अर्थ होते हैं। इतना विशेष है कि नैगमनय ज्ञाननय भी है और अर्थनय भी है। पहले चार नयों के विषय मुख्यतया अर्थ और गौणतया शब्द होते हैं और शेष तीन नयों के विषय मुख्यतया वाचक शब्द और गौणतया अर्थ होते हैं। नैगमादिनयों में कार्य-कारणता तथा सूक्ष्माल्पविषयता इन नयों में पूर्वपूर्व नय उत्तरोत्तर नय का कारण होता है और पूर्वपूर्व नय का विषय उत्तरोत्तर नय के विषय से बहु विषयवाला या स्थूल होता है। उत्तरोत्तर नय पूर्वनय का कार्यरूप होता है और उसका विषय पूर्वपूर्व नय के विषय से अल्प या सूक्ष्म होता है अर्थात् नैगमनय के विषय में संग्रह आदि छहों नयों का विषय समा जाता है। संग्रहनय के विषय में अभेदरूप से व्यवहार आदि पाँचों नयों का विषय समा जाता है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि संग्रहनय की अपेक्षा नैगम-नय का, व्यवहारनय की अपेक्षा संग्रहनय का और ऋजुसूत्र नय आदि की अपेक्षा व्यवहारनय आदि का विषय महान है अर्थात् नैगमनय का समग्र विषय संग्रह नय का अविषय है। संग्रहनय का समग्र विषय व्यवहारनय का अविषय है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए। इन सात नयों में से नैगमनय संकल्पग्राही होने से सत् और असत् दोनों को विषय करता है जबकि संग्रहनय सत् तक ही सीमित है। नैगमनय द्रव्य और पर्यायगत भेदा-भेद को गौण-मुख्यभाव से ग्रहण करता है जबकि संग्रहनय की दृष्टि केवल अभेद पर है, इसलिए संग्रहनय के विषय से नैगमनय का विषय महान् है और नैगमनय के विषय से संग्रहनय का विषय अल्प और सूक्ष्म है। संग्रहनय अभेदरूप से सत्ता और अवान्तर सत्ताओं को ग्रहण करता है, इसलिए व्यवहारनय से संग्रहनय का विषय महान् है और संग्रहनय से व्यवहारनय का विषय अल्प है। व्यवहारनय भेद रूप से द्रव्य को विषय करता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय के विषय से व्यवहारनय का विषय महान् है और व्यवहारनय के विषय से ऋजुसूत्रनय का विषय अल्प और सूक्ष्म है। ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालीन एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है, इसलिए शब्दनय के विषय से ऋजुसूत्रनय का विषय महान् है और ऋजुसूत्रनय के विषय से शब्दनय का विषय नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 245 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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