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________________ ऐश्वर्य भोग रहा हो। शक्र को शक्र तभी मानता है जब वह शासन कर रहा हो, इन्दन क्रिया के समय नहीं। पुरन्दर को पुरन्दर तभी कहता है जब वह पुरदारण क्रिया कर रहा हो, ऐश्वर्य-भोग के समय नहीं। घट को घट तभी स्वीकार करता है जब उसमें घटन क्रिया या जलधारण क्रिया हो रही हो उससे भिन्न समय में नहीं, पूजा करते समय ही पुजारी को पुजारी कहता है, पाठ करते समय नहीं। इसी प्रकार अन्य उदाहरणों को समझना। तात्पर्य यह है कि एवंभूतनय में उपयोगसहित क्रिया की प्रधानता होती है। इसके अनुसार वस्तु तभी पूर्ण होती है जब वह अपने सम्पूर्ण गुणों से युक्त हो और यथावत् क्रिया करे। यदि तत्क्रिया काल में अर्थात् जिस समय जिस वस्तु की जो क्रिया चल रही है। उस समय उस वस्तु के लिए उसके उपयुक्त शब्द का प्रयोग न करके अन्य शब्द का प्रयोग किया जाय तो वह एवंभूतनयाभास है। एवंभूतनय अमुक क्रिया से युक्त पदार्थ को ही उस क्रिया-वाचक शब्द से अभिहित करता है, किन्तु अपने से भिन्न दृष्टिकोण का निषेध नहीं करता। जो दृष्टिकोण एकान्त रूप से क्रियायुक्त पदार्थ को ही शब्द का वाच्य मानने के साथ उस क्रिया से रहित वस्तु को उस शब्द के वाच्य होने का निषेध करता है वह एवंभूतनयाभास है। एवंभूतनयाभास का दृष्टिकोण यह है कि अगर घटन क्रिया न होने पर भी घट को घट कहा जाय तो पट या अन्य पदार्थों को भी घट कह देना अनुचित न होगा। फिर तो कोई भी पदार्थ किसी भी शब्द से कहा जा सकेगा। इस अवस्था का निवारण करने के लिए यही मानना उचित है कि जिस शब्द से जिस क्रिया का भान हो उस क्रिया की विद्यमानता में ही उस शब्द का प्रयोग किया जाए, अन्य समयों में उस शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह है कि-शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन नय परस्परसापेक्ष होने पर ही समीचीन या सम्यक् होते है। अतएव एक दूसरे का उपकार करने वाले होते हैं और परस्पर-निरपेक्ष होने पर वे ही मिथ्या होते हैं या आभास रूप होते हैं। क्योंकि परस्पर-निरपेक्ष होने पर ये परस्पर-विरोधी होते हैं। शब्दनय यदि समभिरूढनय और एवंभूतनय इन दोनों के विषयों की अपेक्षा रखने वाला न हो तो यह नय शब्द नयाभास रूप बन जाता है, समभिरूढनय यदि शब्दनय और एवंभूतनय के विषयों की अपेक्षा रखने वाला न हो तो यह नय समभिरूढनयाभास रूप बन जाता है और इसी प्रकार एवंभूतनय यदि शब्दनय और समभिरूढनय के विषयों की अपेक्षा नहीं रखता हो तो यह नय भी एवंभूतनयाभास रूप बन जाता है। निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार उक्त नैगमादि नयों तथा उनके आभासों का 244 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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