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अल्प है। शब्दनय लिंगादिक के भेद से वर्तमानकालीन पर्याय को भेदरूप से ग्रहण करता है, इसलिए समभिरूढनय के विषय से शब्दनय का विषय महान् है और शब्दनय के विषय से समभिरूढ नय का विषय सूक्ष्म और अल्प है। समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्दों के भेद से वर्तमानकालीन पर्याय को भेदरूप से स्वीकार करता है, इसलिए वर्णभेद से पर्याय के भेद को मानने वाले एवंभूतनय से समभिरूढनय का विषय महान् है और समभिरूढनय के विषय से एवंभूतनय का विषय सूक्ष्म और अल्प है।
इन सात नयों की उत्तरोत्तर अल्पविषयता को स्पष्ट करने के लिए एक सुन्दर संक्षिप्त उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है किसी गाँव में कहीं किसी पक्षी के शब्द को सुनकर नैगमनय की दृष्टि से कहा जाएगा कि 'गाँव में' पक्षी बोल रहा है। संग्रहनय की दृष्टि से कहा जाएगा कि 'वृक्ष पर' पक्षी बोल रहा है। व्यवहारनय की दृष्टि से कहा जाएगा कि विटप (तना) पर पक्षी बोल रहा है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से कहा जाएगा 'शाखा पर' पक्षी बोल रहा है। शब्दनय की दृष्टि से कहा जाएगा कि 'घोंसले' में पक्षी बोल रहा है। समभिरूढनय की दृष्टि से कहा जाएगा कि वह अपने 'शरीर में' बोल रहा है और एवंभूतनय की दृष्टि से कहा जाएगा वह अपने 'कण्ठ' में बोल रहा है। जिस प्रकार यहाँ पक्षी के बोलने के प्रदेश को लेकर उत्तरोत्तर क्षेत्रविषयक सूक्ष्मता है, उसी प्रकार सातों नयों के विषय में उत्तरोत्तर सूक्ष्म-विषयता समझना चाहिए।
उक्त समस्त कथन का निष्कर्ष यह है कि ये सातों ही नय परस्पर सापेक्ष होकर तत्त्व का विवेचन करते हैं। यद्यपि प्रत्येक नय अपने ही विषय को ग्रहण करता है फिर भी उसका प्रयोजन दूसरे दृष्टिकोण का निराकरण करना नहीं है। इससे अनेकान्तात्मक वस्तु की सिद्धि होती है और एकान्तदर्शनों के मन्तव्यों का परिहार होता है। यही इन सब नयों की उपयोगिता और प्रयोजन है।
सन्दर्भ
1. स. त. अ. सू.-1135, पृ. 63 2. स. प्र.-3/47 3. गो. क.-गा. 894 4. अ. यो. व्य.-का. 22 5. प्र. सा., गा.-114 तथा इसकी टीका, नियमसार गा. 19 6. तित्थयर वयणसंगह-विसेसपत्थारमूल वागरणी।
246 :: जैनदर्शन में नयवाद
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