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________________ विषयभूत यह विस्तार परसंग्रह से लेकर ऋजुसूत्र तक होता है, क्योंकि सभी वस्तुएँ कथंचित् सामान्य-विशेषात्मक होती हैं। इस प्रकार यह व्यवहार - नय नैगमरूप नहीं हो सकता; क्योंकि यह संग्रह के विषय का विभाजन करने वाला है और नैगमनय सर्वत्र दो धर्मों को या दो धर्मियों को अथवा धर्म और धर्मी इन दोनों को गुण - प्रधान भाव से अपना विषय बनाता है । व्यवहारनयाभास”–जो वस्तु के द्रव्यपर्याय विभाग को काल्पनिक मानता है वह व्यवहारनयाभास; क्योंकि वस्तु के द्रव्यपर्यायरूप विभाग का काल्पनिकत्व प्रमाणबाधित है। वस्तु का द्रव्य और पर्याय यह विभाग कल्पनारोपित ही है, ऐसा नहीं है । वस्तु की कथंचित् नित्यता की सिद्धि करना रूप अर्थक्रिया का हेतु द्रव्य विभाग है और कथंचित् अनित्यता की सिद्धि करना रूप अर्थक्रिया का हेतु पर्याय विभाग है। यदि वस्तु के इस विभाग को काल्पनिक अर्थात् मिथ्या माना जाय तो अर्थक्रियाओं की सिद्धि नहीं हो सकती। वंध्या के पुत्र का अभाव होने पर जिस प्रकार वंशवृद्धि नहीं होती उसी प्रकार द्रव्य - विभाग और पर्याय विभाग का अभाव होने पर उक्त अर्थक्रियाएँ नहीं हो सकतीं। दूसरी बात यह है कि द्रव्य - पर्याय विभाग रूप व्यवहार को मिथ्या माना जाये तो व्यवहार की अनुकूलता से बनने वाली प्रमाणों की प्रमाणता नहीं बनेगी। यदि उक्त विभागरूप व्यवहार मिथ्या होने पर भी 'प्रमाणों' की प्रमाणता सिद्ध हो सकती है; ऐसा माना जाय तो स्वप्नादि विभ्रमरूप व्यवहार की अनुकूलता से भी प्रमाणों की अप्रमाणता का प्रसंग आ जाएगा। अत: द्रव्यपर्यायरूप विभाग की सत्यता का अभाव होने पर व्यवहारनय आभासरूप हो जाता है। चार्वाकदर्शन वास्तविक द्रव्यपर्याय के भेद को स्वीकार नहीं करता, किन्तु अवास्तविक भूतचतुष्टय को स्वीकर करता है । अतः चार्वाकदर्शन व्यवहारनयाभास है। इसी प्रकार सौत्रान्तिक का जड़ या चेतन सभी पदार्थों को सर्वथा क्षणिक, निरंश और परमाणुरूप मानना, योगाचार का क्षणिक अविभागी विज्ञानाद्वैत मानना, माध्यामिक का निरालम्बन ज्ञान या सर्वशून्यता स्वीकार करना प्रमाण विरोधी और लोकव्यहार में विसंवादक होने से व्यवहार-नयाभास है (4) ऋजुसूत्र – ऋजु शब्द का अर्थ सरल या सीधा होता है और 'सूत्र' का अर्थ धागा या डोरा होता है । जो सरल या सीधे अर्थ को ग्रहण करे अथवा जो सीधे ढंग से वस्तु को मुक्ताफल की तरह एक सूत्र (धागे) में पिरोए, वह श्रुतज्ञान विशेष ऋजुसूत्र नय कहलाता है । यह इसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ है । नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 237 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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