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________________ ऋजुसूत्रनय भूत और भविष्य की उपेक्षा करके द्रव्य की वर्तमान सरल पर्याय (अवस्था) को ग्रहण करता है। वर्तमान में यदि आत्मा सुख का अनुभव करता है । तो यह नय उसे सुखी कहेगा और बाह्य रूप से अनेक प्रकार की अनुकूलता होने पर भी यदि आत्मा में किसी प्रकार का खेद विद्यमान है तो यह नय उसे दुःखी कहेगा। ___ व्यवहार में साधु का वेश धारण करने पर भी यदि किसी का मन सांसारिक विषयों में लगा हो तो यह नय उस समय उसे साधु नहीं मानता। इसी प्रकार सामायिक, भक्ति आदि के विषय को लेकर भी समझना चाहिए.। बास्तव में यह नय वर्तमान समयवर्ती पर्याय को ही ग्रहण करता है। इसके अनुसार वस्तु की अतीत पर्याय तो नष्ट हो चुकी है और अनागत पर्याय अभी है ही नहीं। इसलिए न अतीत पर्याय से काम चलता है और न भावि पर्याय से लोकव्यवहार चलता है। काम तो वर्तमान पर्याय से ही चलता है। अत: यह नय वर्तमान क्षणवर्ती शुद्ध अर्थ पर्याय (एकसमयवर्ती वर्तमान पर्याय) को ही विषय करता है। त्रिकालातीत द्रव्य की विवक्षा नहीं करता है। यह तो सरल सूत की तरह केवल वर्तमान पर्याय को स्पष्ट करता है। सम्भवतः कोई यह कहे कि इस तरह से तो सब व्यवहार का लोप हो जाएगा; क्योंकि जिसे हमने कर्ज दिया था वह तो अतीत हो चुका, अब हम रुपया किससे लेंगे? किन्तु बात ऐसी नहीं है। लोकव्यवहार सब नयों से चलता है, एक ही नय को पकड़ कर बैठ जाने से लोकव्यवहार नहीं चल सकता है। हमें अभिप्राय को समझना चाहिए। यद्यपि इसप्रकार के एकत्व का ग्रहण कुछ अटपटा सा प्रतीत होता है और समस्त व्यवहार का लोप करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से तत्त्व का निरीक्षण करने वाले के लिए न यह अटपटा है और न व्यवहार का लोप करने वाला। उस सूक्ष्मदृष्टि वाले का लक्ष्य लौकिक व्यवहार पर है ही नहीं, अतः वह व्यवहार उसकी दृष्टि में भ्रममात्र है। अटपटा इसलिए नहीं मालूम पड़ता कि उस प्रकार से देखने पर वस्तु वैसी ही दिखाई अवश्य देती है। कुछ विषय तो ऋजुसूत्र नय का ऐसा है, जिसका वर्णन अभी आगे किया जाएगा और जिसे जानकर हम आश्चर्यचकित होंगे। जैसे कौवा काला नहीं होता, पलाल जलती नहीं, बालक बूढ़ा नहीं हुआ आदि। किन्तु सूक्ष्मदृष्टि या सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर आश्चर्य की कोई बात नहीं, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है और इस नय का विषय भी ऐसा ही है। यह नय शुद्ध वर्तमानकालीन एक क्षणवर्ती पर्याय मात्र को विषय करता है। इस नय का विषय पच्यमान भी अंशत: पक्व, भुज्यमान 238 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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