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________________ गुणविशेष से सर्वथा अभिन्न मानने से अपरसंग्रहनय आभासरूप हो जाता है, क्योंकि प्रतीति का उल्लंघन हो जाता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर द्रव्यसामान्य का . द्रव्यव्यक्ति विशेषों से, पर्याय-सामान्य का पर्याय विशेष से सर्वथा अभेद मानने से अर्थात् कथंचित् भेद न मानने से अपरसंग्रह नय संग्रहाभास रूप ही हो जाता है। इसका कारण यह है कि 'सामान्य और विशेष इनमें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद होता है', यह मान्यता प्रमाणविरुद्ध है। इनमें कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद मानना ही प्रमाणसिद्ध है। (3) व्यवहारनय –'विशेषेण विधिपूर्वकमवहरणं पृथक्करणं व्यवहारः' परसंग्रह नय के द्वारा गृहीत किये गये अर्थों का विधिपूर्वक पृथक्करण अर्थात् विभाग करना व्यवहार है। यह अनेक प्रकार का होता है। यह परसंग्रहनय के द्वारा संगृहीत अर्थों का ऋजुसूत्रनय के विषयभूत सूक्ष्म पर्याय तक विभाग करता जाता है। परसंग्रह नय जो सत् होता है उसका संग्रह करता है, व्यवहार इस संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थों का अर्थ-पर्याय तक विभाजन करता जाता है। 'सत्' उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक वस्तु है। उस वस्तु के द्रव्य और पर्याय इन अंशों को व्यवहार नय विभाजित करता है। अपरसंग्रह द्रव्यत्वरूप सामान्य के द्वारा सभी द्रव्यों का संग्रह करता है और पर्याय रूप सामान्य के द्वारा सभी पर्यायों का संग्रह करता है। व्यवहार नय द्रव्यसामान्य का जो द्रव्य है वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह प्रकार का है' इसप्रकार विभाजन करता है और जो पर्याय है उसका क्रमभावि-पर्याय और सहभावि-पर्याय के रूप से द्वि प्रकारक विभाजन करता है। अपरसंग्रह जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्रमभावि-पर्यायत्व सामान्य का अवलम्बन लेकर सभी क्रमभावि पर्यायों को ग्रहण करता है और सहभावि पर्यायत्व सामान्य का अवलम्बन लेकर सभी सहभावि पर्यायों को ग्रहण करता है। संग्रहनय संगृहीत इन अर्थों का व्यवहारनय विभाजन करता है। जैसेजीवद्रव्य सामान्य के मुक्त और संसारी इसप्रकार, पुद्गल द्रव्य सामान्य के अणु और स्कंध इसप्रकार गति हेतुत्व-सामान्य ऐसे धर्म द्रव्य के जीवगति हेतु और पुद्गलगति हेतु इसप्रकार, अधर्मास्तिकाय के जीवस्थिति हेतु और पुद्गलस्थिति हेतु इसप्रकार व्यवहार नय भेद करता है। उसी प्रकार जो आकाश है उसके लोकाकाश और अलोकाकाश इसप्रकार, तथा जो काल है उसके मुख्य काल और व्यवहार काल इसप्रकार, जो क्रमभावी पर्याय है उसके क्रियारूप और अक्रिया रूप इसप्रकार, विशेष जो सहभावी पर्याय है उसके गुण और सदृशपरिणाम रूप सामान्य इसप्रकार अपर संग्रहों के द्वारा गृहीत विषयों के विभाजन का विस्तार है। व्यवहार-नय का 236 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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