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________________ अपरसंग्रह-अपरसंग्रह नय केवल अपने विषयभूत द्रव्यविशेष का ही ग्रहण करता है। जैसे-'जीव' कहने से मात्र जीवों का ग्रहण होगा, अजीवों का नहीं। अपरसंग्रहनयाभास–'जिन द्रव्यों में द्रव्यत्व-सामान्य आश्रित होता है, उन द्रव्यों से द्रव्यत्व एकान्त रूप से अभिन्न है; क्योंकि द्रव्यत्व सामान्य से भिन्न द्रव्यों का सद्भाव नहीं पाया जाता, उनका अभाव ही होता है।' इस प्रकार मानने से अपरसंग्रहनय आभास रूप ही बन जाता है; क्योंकि ऐसा मानना प्रतीतिविरुद्ध है। लौकिक व्यवहार में द्रव्यत्व-सामान्य और द्रव्य इनमें कथंचित् भेद भी पाया जाता है। 'पर्यायत्व सामान्य पर्यायों से कदापि भिन्न नहीं होता-वह पर्यायात्मक ही होता है; क्योंकि पर्यायत्व-सामान्य से भिन्न पर्यायों का अस्तित्व नहीं रह सकता। उस कारण से ही पर्यायत्व-सामान्य पर्यायव्यक्त्यात्मक होता है।' इस प्रकार मानने से अपरसंग्रहनय आभासरूप बन जाता है। उसी प्रकार जीवत्व सामान्य जीवव्यक्त्यात्मक ही होता है , पुद्गलत्व-सामान्य पुद्गलव्यक्त्यात्मक ही होता है, धर्मत्व-सामान्य धर्मद्रव्यव्यक्त्यात्मक ही होता है, अधर्मत्व-सामान्य अधर्मद्रव्यव्यक्त्यात्मक ही होता है, आकाशत्व-सामान्य आकाशद्रव्यव्यक्त्यात्मक ही होता है और कालत्व समान्य कालात्मक ही होता है। ऐसी मान्यताओं से अपरसंग्रहनय आभासरूप बन जाते हैं। अपर सामान्य का व्यक्ति के साथ अर्थात् विशेष के साथ सर्वथा अभेद माना जाएगा तो अपरसामान्य का अभाव हो जाएगा' क्योंकि वह विशेष में विलीन हो जाने पर ही विशेष से सर्वथा अभिन्न हो सकता है। इस प्रकार अपरसामान्य का अभाव हो जाने पर विशेष का भी अभाव हो जाने का प्रसंग खड़ा हो जाता है; क्योंकि 'निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्। सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि।। इस वचन के अनुसार और प्रतीति के अनुसार अकेले अर्थात् सामान्य-रहित विशेष का सद्भाव नहीं रह सकता। इसी प्रकार सामान्य और विशेष इनमें सर्वथा भेद मानने पर भी दोनों का अभाव हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है; क्योंकि दोनों का एक दूसरे के अभाव में अस्तित्व ही नहीं बन सकता। ... सारांश यह है कि सामान्य और विशेष को सर्वथा अभिन्न मानने पर और सर्वथा भिन्न मानने पर भी दोनों का अभाव हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जाने से अपरसंग्रह नय नयाभास हो जाता है। इसी प्रकार क्रमभाविपर्याय सामान्य क्रमभावि पर्याय विशेष से सर्वथा अभिन्न और सहभावि गुणसामान्य सहभावि नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 235 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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