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________________ के कुल पन्द्रह भेद हो जाते हैं । (2) संग्रह - नय 4 – जो नय अभेद रूप से सम्पूर्ण वस्तु समूह को विषय करता है वह संग्रह न है । यह नय अपनी जाति का विरोध न करते हुए एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है । जैसे- 'सत्' कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्य, गुण, कर्म आदि सभी सद्- व्यक्तियों का ग्रहण हो जाता है। 'द्रव्य' कहने से सभी द्रव्यों का ग्रहण हो जाता है । इसी प्रकार 'घट' कहने से सभी प्रकार के घड़ों का ग्रहण हो जाता है। यह अभेद ग्राही तथा अद्वैत दर्शाने वाला है। इसी तरह विशेष से रहित सत्ता (द्रव्यत्वादि सामान्य) मात्र को ग्रहण करने वाला है । अथवा. पिण्डित अर्थात् एक जाति रूप सामान्य अर्थ को विषय करने वाला है। यह नय विशेष (भेद) को छोड़कर सामान्य द्रव्यत्व को ग्रहण करता है। एक जाति में आने वाली समस्त वस्तुओं में एकता लाना इसका अभिप्राय है। यह एक शब्द कहने पर उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पदार्थों का ग्रहण कर लेता है। जैसे- 'रोटी लाओ' कहने पर रोटी, शाक, चावल, दाल आदि समस्त भोजन-सामग्री उपस्थित कर दी जाती है। संग्रह नय के दो भेद हैं- परसंग्रह और अपरसंग्रह । परसंग्रह – परसंग्रहनय सामान्य ग्राहक है अर्थात् सत्तामात्र को ग्रहण करता है । 'द्रव्य' शब्द से यह जीव- अजीव का भेद न करके सर्भी द्रव्यों को ग्रहण कर लेता है। परसंग्रहनयाभास” – संग्रहनय के विषय भूत पदार्थों के जो विशेष धर्म होते हैं वे गौण बनाये जाते हैं, उनका निराकरण (अभाव) नहीं किया जाता। यदि उन पदार्थों के विशेषों का निराकरण किया गया है तो ये स्वजाति से च्युत हो जाएँगे और उनमें होने वाले कथंचित् भेद का अभाव हो जाएगा। कथंचित् भेद का अभाव हो जाने पर उनके सर्वथा अभेद की ( एकत्व की ) सिद्धि हो जाएगी। उनके सर्वथा एकत्व की सिद्धि हो जाने पर संग्रहनय की सभी पदार्थों की कथंचित् एकता को ग्रहण करना रूप अर्थ क्रिया का अभाव हो जाएगा और उसके अभाव में संग्रह नय काही अभाव मानना पड़ेगा। सभी पदार्थों के विशेषों का निराकरण करके सत्ता मात्र धर्म से अद्वैत की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हो जाती है । अतः सभी पदार्थों के विशेषों को निराकरण कर देने पर परसंग्रह की सिद्धि न होकर परसंग्रहाभास की ही सिद्धि हो जाती है । पदार्थों के विशेषों का निराकरण करने वाले कपिलों का महासामान्य, वैयाकरणों का शब्दाद्वैत वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैत, बौद्धों का विज्ञानाद्वैत आदि सभी अद्वैतवाद परसंग्रहाभास के ही रूप हैं 1 234 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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