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________________ है; क्योंकि यह अर्थनय है। जो अनेक मानों (जानने की विधियों) से वस्तु को जानता है अथवा अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है उसे भी नैगमनय कहते निगम नाम जनपद (देश) का भी है। जिस देश में जो शब्द जिस अर्थ के लिए नियत है, वहाँ उस अर्थ और शब्द के सम्बन्ध को जानना नैगमनय है अर्थात् इस शब्द का यह अर्थ है और अर्थ का वाचक यह शब्द है। इस प्रकार वाच्यवाचक के सम्बन्ध का ज्ञान नैगमनय है। . नैगमनय पदार्थ को सामान्य, विशेष और उभयात्मक मामता है। तीनों कालों एवं चारों निक्षेपों को मानता है तथा धर्म और धर्मी दोनों को ग्रहण करता है। नैगमनयाभास:-धर्म-धर्मी या गुण-गुणी को अत्यन्त भिन्न मानना नैगम नयाभास है; क्योंकि गुण गुणी से पृथक् अपनी सत्ता नहीं रखता और न ही गुणी गुणों से पृथक् अपना अस्तित्व रख सकता है। जैनदर्शन के अनुसार गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियावान् तथा जाति-व्यक्ति में अत्यन्त भेद मानने वाला न्याय-वैशेषिक दर्शन नैगमाभासी है तथा ज्ञान और सुखादि को आत्मा से अत्यन्त भिन्न मानने वाला सांख्यदर्शन भी नैगमाभासी है। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार नैगमनय वस्त्वंशग्राही होता है उसी प्रकार संग्रह और व्यवहार नय भी वस्त्वंशग्राही होते हैं। अतः नैगमनय का संग्रह या व्यवहार नय में अन्तर्भाव किया जा सकता है इसलिए इसे अलग से मानने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु इस प्रकार का कथन ठीक नहीं है; क्योंकि नैगमनय दोनों अंशों को गुण प्रधान भाव से जानने वाला है, अत: इसका वस्तु के एक मात्र अंश को जानने वाले संग्रह या व्यवहारनय में कैसे अन्तर्भाव किया जा सकता है? वस्तु के दोनों अंशों को ग्रहण करने वाले नैगमनय का विषय जब एक अंश को जानने वाले संग्रह नय या व्यवहार नय के विषय से बड़ा है तब उन दोनों नयों में से किसी भी एक नय में नैगमनय का अन्तर्भाव किया जाना असम्भव है। वस्त्वंशद्वयग्राही नैगमनय का ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय, इन में से किसी भी एक नय में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता; क्योंकि ऋजुसूत्रादि प्रत्येक नय वस्तु के एक मात्र अंश को ग्रहण करने वाले होने से जिस प्रकार नैगमनय का संग्रहनय में अथवा व्यवहारनय में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता उसी प्रकार ऋजुसूत्रादि नयों में भी उसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। अत: नैगमनय का किसी भी अन्य नय में अन्तर्भाव न होने से नयों की संख्या सात ही है, छह नहीं हो सकती। 232 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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