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का उत्तर लकड़ी की हल रूप भावि पर्याय की अपेक्षा से है । किन्तु उस समय न तो कहीं भात है और न हल, किन्तु उन दोनों का भात और हल बनाने का संकल्प मात्र है, उस संकल्प में ही ये भात या हल का व्यवहार करते हैं । इस प्रकार अनिष्पन्न अर्थ के संकल्प मात्र का ग्राहक नैगमनय है या यों कहिए कि जितना लोकव्यवहार अनिष्पन्न अर्थ के अवलम्बन से संकल्प मात्र को विषय करता है वह सब नैगमनय का विषय है। 70
अर्थनय की अपेक्षा से नैगमनय का दूसरा लक्षण 'न एकं गमः नैगमः' जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है इस व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है; जिसका अर्थ होता है जो एक को ही विषय न करे, भेद और अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है अर्थात् जो धर्म और धर्मी में से एक को ही नहीं जानता है, किन्तु गौण और मुख्य रूप से धर्म और धर्मी दोनों को ही विषय करता है उसे नैगमनय कहते हैं। जैसे—जीव अमूर्त है, ज्ञाता, द्रष्टा है। यहाँ प्रधान रूप से जीवत्व का निरूपण करने पर ज्ञानादि या सुखादि धर्म गौण हो जाते हैं और ज्ञानादि गुणों का निरूपण करने पर आत्मद्रव्य गौण हो जाता है। यह न केवल धर्म को ही ग्रहण करता है और न केवल धर्मी को ही, किन्तु विवक्षानुसार दोनों ही इसके विषय होते हैं। भेद और अभेद दोनों को ही यह जानता है । दो धर्मों में से, दोनों धर्मियों में से और धर्म तथा धर्मी इन दोनों में से केवल एक के प्रति गमन न करना अर्थात् दोनों में से किसी एक का ही प्रतिपादन न करना किन्तु दोनों का ही मुख्य और गौण रूप से प्रतिपादन करना यह नैगमनय का स्वरूप है ।" यह नय संग्रह नय के विषय अभेद को तथा व्यवहार नय के विषय भेद को दोनों को ही युगपत् किन्तु मुख्य गौण के विकल्प से ग्रहण करता है । संग्रहनय अनेकों में अनुगत सामान्य को ही ग्रहण करके वस्तु को एक मानता है और व्यवहारनय उसी वस्तु में अनेकों द्रव्य, गुण, पर्याय गत विशेषों का ग्रहण करके उसे अनेक रूप मानता है। जैसे 'जीव एक . है' यह संग्रहनय का विषय है और जीव दो प्रकार का है - 'संसारी व मुक्त' यह व्यवहार नय का विषय है । परन्तु इन दोनों नयों के विषयों को मुख्य- गौण भाव से युगपत् ग्रहण करना यह नैगमनय का विषय है । उसमें कहीं संग्रहनय का अभेद विषय मुख्य होता है तो व्यवहारनय का भेद विषय गौण हो जाता है। जैसे—जो यह संसारी व मुक्त दो प्रकार का कहा जा रहा है वह वास्तव में एक जीव ही है । कहीं व्यवहारनय का भेद विषय मुख्य हो जाता है और संग्रहनय का अभेद विषय गौण हो जाता है। जैसे—यह जो एक जीव कहा जा रहा है वही संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है। नैगमनय के इस लक्षण का विषय सत्ता भूत पदार्थ ही
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नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद - प्रभेद :: 231
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