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वास्तव में संसार की छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ एक दूसरी से सर्वथा भिन्न या असमान भी नहीं हैं और सर्वथा अभिन्न एकरूप या समान भी नहीं हैं। समानता या अभिन्नता और असमानता या भिन्नता दोनों अंश सभी में विद्यमान हैं। इसीलिए वस्तु - मात्र को सामान्य - विशेषात्मक या उभयात्मक कहा जाता है । मानव - बुद्धि कभी तो वस्तुओं के सामान्य या द्रव्यांश की ओर झुकती है और कभी विशेषांश या पर्यायांश की ओर । सामान्य या द्रव्य अंश की ओर झुकते समय किया गया विचार द्रव्यार्थिक नय और विशेषांश या पर्यायांश की ओर झुकते समय किया गया वही विचार पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इस प्रकार नय के मूल भेद दो ही हैंद्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । अन्य सब नय इन्हीं दोनों के भेद - प्रभेद हैं, जैसा कि ऊपर भी कहा जा चुका है।
प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करने पर उसमें दो मुख्य अंश दृष्टिगोचर होते हैं। एक सामान्य अंश और दूसरा विशेष अंश, क्योंकि सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्मों का समूह ही वस्तु है। किन्तु केवल द्रव्यास्तिक नय को मानने वाले अद्वैतवादी, मीमांसक तथा सांख्य पदार्थ को केवल सामान्यात्मक ही मानते हैं। उनका कथन है कि सामान्य से भिन्न विशेष दृष्टिगोचर नहीं होता । सब पदार्थों का सामान्य रीति से ही ज्ञान होता है और सब पदार्थ 'सत्' कहे जाते हैं, अतएव समस्त पदार्थ एक हैं । द्रव्यत्व ही एक तत्त्व है; क्योंकि द्रव्यत्व को छोड़कर धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव नहीं पाये जाते । अतः सामान्य ही एक तत्त्व है।
केवल पर्यायास्तिक नय को मानने वाले क्षणिकवादी बौद्ध लोग पदार्थ को केवल विशेष रूप ही मानते हैं। उनकी मान्यता है कि भिन्न और क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले विशेष ही तत्त्व हैं, अतः प्रत्येक सर्वथा विशेष रूप ही है। विशेष को छोड़कर सामान्य कोई अलग वस्तु नहीं है। गौ को जानते समय हमें गौ के वर्ण, आकार आदि के विशेष ज्ञान को छोड़कर 'गौ' का केवल सामान्य ज्ञान नहीं होता है; क्योंकि विशेष ज्ञान को छोड़कर किसी पदार्थ का सामान्य ज्ञान हमारे अनुभव
बाहर है। अतएव पदार्थों के विशेष ज्ञान को छोड़कर पदार्थों का केवल सामान्य होना असम्भव है। अतः सामान्य कोई वस्तु नहीं है, प्रत्येक वस्तु सर्वथा विशेषात्मक ही है।
केवल नैगमनय का अनुकरण करने वाले न्याय-वैशेषिक सामान्य को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं और विशेष को एक स्वतन्त्र पदार्थ और उनका द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध मानते हैं । इसप्रकार परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करते हैं। वे सामान्य और विशेष को एक न मानकर परस्पर भिन्न स्वीकार करते हैं।
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नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 221
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