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________________ क्षणिकता को ग्रहण करने वाली बौद्ध दृष्टि ऋजुसूत्र नय में समाविष्ट की जाती है। काल, कारक, संख्या तथा धातु के साथ लगने वाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग . आदि की दृष्टि से प्रयुक्त होने वाले शब्दों के वाच्य अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं। इस काल, कारकादि भेद से शब्द-भेद मानकर अर्थभेद मानने वाली दृष्टि का शब्दनय में समावेश होता है। एक ही साधन से निष्पन्न तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं, अत: इन पर्यायवाची शब्दों से भी अर्थ - भेद मानने वाली दृष्टि का समभिरूढनय में अन्तर्भाव किया जाता है। 1 भूत न कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रिया में परिणत हो. उसी समय, उसमें तत्क्रिया से निष्पन्न शब्द का प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टि से सभी शब्द क्रियावाची है। गुणवाचक 'शुक्ल' भी शुचिभवन रूप क्रिया से, जातिवाचक ‘अश्व' शब्द आशुगमन रूप क्रिया से, क्रिया - वाचक 'चलति' शब्द चलने रूप क्रिया से, नामवाचक 'यदृच्छा' शब्द देवदत्तादि 'भी' ' देव ने इसको दिया' इस क्रिया से निष्पन्न हुए हैं। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्द को आश्रय लेकर होने वाले ज्ञाता के अभिप्रायों का समन्वय इन नयों में किया गया है; किन्तु कोई भी अभिप्राय (या दृष्टि) अपने प्रतिपक्षी अभिप्राय का निराकरण या उपेक्षा नहीं करेगा। यह हो सकता है कि जहाँ एक अभिप्राय की मुख्यता रहे वहाँ दूसरा अभिप्राय गौण हो जाय। यही सापेक्ष भाव नय का प्राण है। इसी से नय सुनय कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि ने सापेक्षता को सुनय और निरपेक्षता को दुर्नय कहा ही है, जैसा कि द्वितीय अध्याय के नय प्रकरण में कहा गया है। द्वितीय प्रकार (1) द्रव्यार्थिक नय और (2) पर्यायार्थिक नय । जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु सामान्य- विशेषात्मक या द्रव्य-पर्यायात्मक है और न वस्तु के एक अंश का ग्राही होता है; अतः सामान्य या द्रव्यांश का ग्राही द्रव्यार्थिक नय है और विशेष या पर्यायांश का ग्राही पर्यायार्थिक नय । दूसरे शब्दों में अभेदपरक या सामान्य ग्राही दृष्टि द्रव्यार्थिक नय और भेदपरक या विशेषग्राही दृष्टि पर्यायार्थिक नय है । द्रव्यार्थिक नय वस्तु को केवल सामान्य या अभेद रूप ही देखता है और पर्यायार्थिक नय उसी वस्तु को केवल विशेष या भेद रूप । तात्पर्य यह है कि अभेद या सामान्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नय और भेद या विशेष को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिक नय है। 220 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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