SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृष्टिकोण भी' और 'ही' के समुचित प्रयोग का निर्देश करता है, जिससे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होता है। वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक या अनेक-धर्मात्मक है। उसको द्योतित करने वाला यह 'स्यात्' पद है। नयों के साथ इसका प्रयोग किये बिना वस्तु एक धर्म रूप ही सिद्ध होती है, जो वस्तु का स्वरूप नहीं है। जैसे-वस्तु 'स्यात् नित्यम्', 'स्यात् अनित्यम्' इन दो नय रूप वाक्यों ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्तु द्रव्यार्थिक नय से नित्य है और वही वस्तु पर्यायार्थिक नय से अनित्य है या सामान्य की अपेक्षा से नित्य है तो विशेष की अपेक्षा से अनित्य है। यही वस्तु का स्वरूप है। यदि 'स्यात्' पद का प्रयोग न किया जाय तो वस्तु सर्वथा नित्य ही या सर्वथा अनित्य ही सिद्ध होगी, जो सर्वथा एकान्त रूप ही है, अतः वह वस्तु का स्वरूप नहीं है। वस्तु सदा अपने स्वरूप (ध्रौव्यत्व) से रहकर भी परिणमन किया करती है। इसलिए वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य, उभय स्वरूप है। यही उसका निर्बाध लक्षण है, जो नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से सिद्ध होता है। जैसा कि विवेचन किया गया है, सत् या वस्तु-स्वरूप के विषय में प्रायः सभी जैनेतर दर्शनों में बड़ा भारी मतभेद है। जैनदर्शन ने इन सभी मतों की समीक्षा करते हुए उनमें नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से समन्वय स्थापित किया है। . वेदान्त (औपनिषद् शाङ्कर मत) दर्शन सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को केवल नित्य (ध्रुव) ही मानता है तो बौद्धदर्शन ‘सर्व क्षणिकं सत्वात्' कहकर सत् को निरन्वय क्षणिक अर्थात् मात्र उत्पाद-विनाशशील मानता है। ___ सांख्यदर्शन चेतन तत्त्व रूप सत् को तो केवल ध्रुव अर्थात् कूटस्थ नित्य और - प्रकृति तत्त्व रूप सत् को परिणामि नित्य मानता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आकाश, आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों को कूटस्थ नित्य और घट-पट, दीपक आदि कुछ सत् पदार्थों को मात्र उत्पाद, व्ययशील अर्थात् अनित्य मानता है, परन्तु जैनदर्शन का सत् (वस्तु) के स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाला मन्तव्य उक्त सभी मतों से भिन्न है। वह सत् या पदार्थ के सम्बन्ध में प्रचलित उक्त मान्यताओं या धारणाओं की समीक्षा करते हुए पदार्थ या सत् को न तो सर्वथा नित्य ही कहता है और न सर्वथा अनित्य ही। कारण द्रव्य को सर्वथा नित्य मानने से अर्थ क्रियाकारित्व का विरोध आएगा और वस्तु निष्क्रिय सिद्ध हो जाएगी। कार्य द्रव्य की अपेक्षा सर्वथा अनित्य मानने से भी वस्तु-उच्छेद का प्रसंग आएगा। अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभाव रूप से अन्वय बना रहना ध्रौव्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सत् या द्रव्य के निज नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 201 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy