SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फलितवाद स्याद्वाद तथा नयवाद से करता है। नयवाद सापेक्ष या समन्वयवादी दृष्टिकोण को उपस्थित करके समस्त एकान्तवादों के एकांगी दृष्टिकोणों को समाप्त . कर देता है। वह परस्पर विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सभी वादों का निर्दोष समन्वय करता है। क्योंकि विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने पर ही वस्तु का वास्तविक स्वरूप जाना जा सकता है। बौद्धादि अनित्यत्व वादी दर्शन यदि अनित्यत्व धर्म को सर्वथा एकान्त दृष्टि से स्वीकार न करके उसे सापेक्ष दृष्टि से अर्थात् पर्याय दृष्टि से स्वीकार करें और सांख्यादि नित्यत्व-वादी दर्शन नित्यत्व धर्म को सर्वथा स्वीकार न करके उसे द्रव्यदृष्टि से स्वीकार करें तो कोई विवाद ही उपस्थित न होगा और इस प्रकार दोनों ही दृष्टिकोण सापेक्ष रूप से सत्य सिद्ध होंगे। नय-वाद एक दृष्टिकोण को मान कर दूसरे दृष्टिकोण का निराकरण नहीं करता, बल्कि सभी दृष्टिकोणों का समन्वय करके सत्य को ग्रहण करता है। जैनदर्शन में वस्तु के परस्पर-विरोधी अनेक धर्मों का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'शायद' नहीं है, जैसा कि साधारण बोलचाल की भाषा में इसका अर्थ लिया जाता है। इसका गूढ़. अर्थ है 'कथंचित्' या अपेक्षा' या 'दृष्टिकोण' । इस ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग नयों के साथ करने पर वे नय अभीष्ट अर्थ के साधक होते हैं। वे दुराग्रह को दूर करके दृष्टि को विशाल और हृदय को उदार बनाते हैं। वे वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि 'स्यात्' पद से लांछित नयों के द्वारा अपेक्षा पूर्वक वस्तु के किसी एक धर्म का कथन करने पर उसके दूसरे धर्मों का लोप नहीं होता। ___ आचार्य समन्तभद्र ने भगवान विमलनाथ की स्तुति के परिप्रेक्ष में कहा हैहे भगवन्। जिस प्रकार सिद्ध अर्थात् सुसंस्कृत पारद आदि रसों के संयोग से लौह आदि धातुएँ स्वर्ण बनकर अभीष्ट फल प्रदान करने वाली बन जाती हैं, उसी प्रकार आपके द्वारा उपदिष्ट द्रव्यार्थिक आदि नय स्यात्' पद से चिह्नित होकर मनोवांछित फल देने वाले हैं, वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सापेक्ष निरूपण द्वारा मुमुक्षुजनों को मिथ्या अथवा एकान्तमार्ग से हटाकर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कराते हैं। इसीलिए आत्महित चाहने वाले गणधरादि देव आपको नमस्कार करते हैं। इस प्रकार 'स्यात्' पद अंकित इन सापेक्ष नयों से विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होता है। एकान्त का निरसन होकर अनेकान्त का समर्थन होता है। एकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व 'ऐसा ही है' और अनेकान्तदृष्टि कहती है कि 'तत्त्व ऐसा भी है।' इसप्रकार के समन्वयवादी दृष्टिकोण से तत्त्व की सिद्धि होती है। यह 200 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy