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________________ सीमित ज्ञान और बुद्धि के अनुसार वस्तु के विभिन्न गुणों का कथन करते हैं। जितने गुणों का वे कथन करते हैं वे सब गुण वस्तु में विद्यमान रहते हैं। उन गुणों को व्यक्ति अपनी इच्छा से वस्तु पर आरोपित नहीं करता। वस्तु के अनेक धर्मात्मक या गुणात्मक होने से उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। एक ही वस्तु सत्असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सामान्य-विशेष आदि विरोधी गुणों से युक्त होती है। ये परस्पर विरोधी गुण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को समझाने में सफल होते हैं। इनमें से किसी भी गुण का निषेध नहीं किया जा सकता। जो दर्शन वस्तु के किसी एक गुण का ही विधान करते हैं और उसी समय वस्तु के दुसरे गुण का निषेध या निराकरण करते हैं, वे एकान्तवादी दर्शन हैं। ये एकान्तवादी दर्शन एक ही नय को अपने विचार का आधार बनाते हैं। उनका दृष्टिकोण एकांगी होता है। वे भूल जाते हैं कि दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी प्रतीत होने वाला विचार भी संगत हो सकता है। इसी कारण वे एकांगी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वस्तु के समग्र स्वरूप को स्पर्श नहीं कर पाते। वे सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। अतः नयवाद अनेक दृष्टिकोणों से समन्वय करता हुआ वस्तु-परीक्षण की कला सिखलाता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर, अस्थायी और अनित्य है। यह अपने दृष्टिकोण को पूर्ण रूपेण सत्य मानता है, यह वस्तु के अनित्यत्व धर्म को स्वीकार करके द्रव्य की अपेक्षा पाये जाने वाले नित्यत्व धर्म का निषेध करता है। दूसरी और वेदान्त, सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनों की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु स्थिर, स्थायी और नित्य है। ये भी अपने दृष्टिकोण को पूर्णतः सत्य मानते हैं और बौद्ध दर्शन की विचारधारा का खण्डन करते हैं। वस्तु के नित्यत्व धर्म को अंगीकार करके पर्याय की दृष्टि से उसमें विद्यमान अनित्यत्व धर्म का अपलाप करते हैं। इस प्रकार विश्व के ये सभी एकान्तवादी दर्शन अपने-अपने एकान्त पक्ष के प्रति आग्रहशील हो कर एक दूसरे को मिथ्या कहते हैं। वे नहीं जानते हैं कि दूसरे को मिथ्यावादी कहने के कारण वे स्वयं ही मिथ्यावादी बन जाते हैं। अगर उन्होंने दूसरे को भी सच्चा माना होता तो वे स्वयं सच्चे हो जाते; किन्तु एकान्तवादिता का दुराग्रह उन्हें ऐसा होने से रोकता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या उक्त सभी दर्शन या विचारधाराएँ पूर्ण सत्य हैं ? यदि पूर्ण सत्य हैं तो फिर उनमें विरोध क्यों? अत: ये विचारधाराएँ न तो पूर्ण रूपेण सत्य हो सकती हैं और न पूर्ण रूपेण मिथ्या। तब फिर वस्तु का वास्तविक स्वरूप क्या माना जाए? जैनदर्शन ऐसे सभी प्रश्नों का समाधान अनेकान्त दृष्टि और उसके नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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