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हैं और न ही समझने वाले का भला करते हैं, किन्तु वे ही नय परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखने के कारण अपना व दूसरों का उपकार करते हैं। वे ठीक प्रकार से .. वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं और उस यथार्थ वस्तु स्वरूप को सुनने वाले भी आत्मकल्याण के मार्ग पर लग जाते हैं इसीलिए वे तत्त्व स्वरूप अथवा सुनय कहे जाते हैं।
इसी का विश्लेषण करते हुए उन्होंने पुनः कहा है-'वस्तु का स्वरूप यदि सर्वथा एकान्त रूप से सत् या असत्, एक रूप या अनेक रूप, नित्य या अनित्य, वक्तव्य या अवक्तव्य माना जाय तो वस्तु के स्वरूप की सिद्धि ही नहीं हो सकती है और यदि वही वस्तु का स्वरूप किसी अपेक्षा से सत् तो दूसरी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से एक रूप तो दूसरी अपेक्षा से अनेक रूप, किसी अपेक्षा से नित्य तो दूसरी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से वक्तव्य तो दूसरी अपेक्षा से अवक्तव्य माना जाय तो सब कथन बाधा रहित सिद्ध हो जाएगा।"
तात्पर्य यह है कि वस्तु का स्वरूप यदि स्यात् (कथंचित् या किसी अपेक्षा से) सत्, स्यात् असत्, स्याद् एक, स्याद् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्याद् वक्तव्य, स्याद् अवक्तव्य, इस तरह स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा कहा जावे तो सब नय सत्य हैं और सर्वथा एकान्त रूप से केवल सत् या असत् आदि रूप से कहा जाय तो वे ही नय मिथ्या हो जाते हैं।
इसी को उन्होंने और स्पष्ट किया है-'प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्यादि चतुष्टय अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से सत् (भाव रूप) है और पर द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् (अभाव रूप) है। वह वस्तु 'अखण्ड गुण समुदाय रूप है' इस दृष्टि से एक है और वही 'अनेक गुणों को रखने वाली है' इस दृष्टि से अनेक है। वह अपने स्वरूप से कभी भी नष्ट नहीं होती है' इस दृष्टि से नित्य है और वही 'पर्यायों या अवस्थाओं के परिवर्तित होते रहने के कारण नाशवान् है; इस दृष्टि से अनित्य है। 'वस्तु धर्मों को क्रम से कहे जा सकने की अपेक्षा से' वह वक्तव्य है और 'उन्हीं अनेक धर्मों को एक ही समय में एक ही साथ वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता है' इस दृष्टि से अवक्तव्य है। यह सब कथन नयों के योग से सिद्ध होता है और यदि वही वस्तु स्वरूप सर्वथा सत् (भाव रूप) या सर्वथा असत् (अभाव रूप) आदि माना जावे तो यह सब मान्यता मिथ्या है और इसे ही दुर्नय कहा जाता है।
उक्त कथन पर विचार कर फलितार्थ यह निकलता है कि नय-दृष्टि को छोड़कर सर्वथा एकान्त रूप में वस्तु-व्यवस्था नहीं बन सकती। वस्तु के स्वरूप को जानने व देखने के विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टिकोण होते हैं। वे अपने
198 :: जैनदर्शन में नयवाद
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