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________________ हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद है, उतने ही परसमय (मत) हैं।' इन सभी मतों का समन्वय सापेक्ष नय योजना से ही सम्भव है । यदि प्रत्येक अभिप्राय को दूसरे अभिप्रायों से सापेक्ष रूप से जोड़ दिया जाय तो विसंवाद समाप्त हो जाता है। झगड़ा 'ही' का है। निरपेक्ष 'ऐसा ही है' यह कहना मिथ्या है अपेक्षा सहित 'ऐसा भी है' यह कहना सम्यक् है । इसप्रकार जैनदर्शन में प्रतिपादित वस्तु स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए, इसका सापेक्ष निरूपण करने के लिए नयों का सम्यक् परिज्ञान आवश्यक है । वस्तु न सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही; किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य। इस प्रकार वस्तु अनेकान्तात्मक है और अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद है तथा उस अनेकान्तात्मक वस्तुं के विवक्षित किसी एक धर्म के सापेक्ष कथन का नाम नय है। स्याद्वाद और नय इन दोनों का कथन जैनेतर दर्शनों में नहीं है, अतः स्याद्वाद और नयवाद भारतीय दर्शनों के क्षेत्र में जैनदर्शन की एक मौलिक देन है। किसी भी विषयं पर विचार करने के अनेक प्रकार या दृष्टिकोण होते हैं। यदि उनका ठीक प्रकार से समन्वय किया जाय, उनको सापेक्षता का रूप दिया जाय तो हम उस विषय में किसी एक सही निर्णय पर पहुँच सकते हैं । जैसे- किसी उद्यान में जाने के अनेक मार्ग होते हैं, कोई मार्ग पूर्व से जाता है तो कोई उत्तर से, कोई पश्चिम से जाता है तो कोई दक्षिण से, किन्तु अन्दर जाकर वे सब मार्ग परस्पर मिल जाते हैं। इसी प्रकार एक ही वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं; किन्तु उनका समन्वय होना भी जरूरी है। इस समन्वय के सिद्धान्त को ही स्याद्वाद, कथंचित्वाद, सापेक्षवाद या नयवाद कहा जाता है। इसी को नय मार्ग भी कह सकते हैं। इस नय मार्ग से ही विभिन्न मतों तथा विभिन्न विचारों का समन्वय किया जा सकता है। जो नय एक दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं वे ही सुनय कहे जाते हैं और वे ही कार्यकारी होते हैं और जो परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हैं, निराकरण या निषेध करते हैं वे प्रतिद्वन्दी होने से दुर्नय हैं अतएव हानिकारक हैं। जो सुनय हैं उनका समन्वय वादी दृष्टिकोण रहता है और जो दुर्नय हैं उनसे समन्वय नहीं हो सकता और समन्वय न होने से वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती है। इस विषय में आचार्य समन्तभद्र ने, 'जो ये नित्य- अनित्य, सत्-असत् आदि एकान्त रूप नय हैं, वे परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा न रखने के कारण अपने व दूसरे का विनाश अर्थात् अहित करने वाले हैं। वे न तो कहने वाले का भला करते नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 197 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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