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नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण
जैनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। वस्तु के अनेक धर्मों में ऐसे धर्म हैं, जो परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। जैसे-सत्त्व-असत्त्व, एकत्वअनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि। इन परस्पर-विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों को लेकर ही नाना दार्शनिक पंथ खड़े हुए हैं। कोई वस्तु को सत् स्वरूप ही मानता है तो कोई असत्स्वरूप ही, कोई नित्य ही मानता है तो कोई अनित्य ही, कोई एक रूप ही मानता है तो कोई अनेक रूप ही। इसप्रकार केवल एक-एक धर्म को मानने वाले एकान्तवादियों का समन्वय करने के लिए नय-मीमांसा का उपक्रम भगवान् महावीर ने किया था। उन्होंने प्रत्येक एकान्त को नय का विषय बतला कर और नयों की सापेक्षता स्वीकार करके अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की थी। जैसा ऊपर कहा जा चुका है-एकान्तों के समूह का नाम ही अनेकान्त है। यदि एकान्त न हों तो उनका समूह रूप अनेकान्त भी नहीं बन सकता। अतः एकान्तों की निरपेक्षता विसंवाद की जड़ है और एकान्तों की सापेक्षता संवाद या समन्वय की जड़ है। अतः पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते और नाश को प्राप्त होते हैं; किन्तु द्रव्यदृष्टि से न तो कभी पदार्थों का नाश होता है और न उत्पाद ही होता है, वे ध्रुव (नित्य) हैं। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-तीनों मिलकर ही द्रव्य का लक्षण है। केवल द्रव्यार्थिक या केवल पर्यायार्थिक नय का जो विषय है वह द्रव्य का लक्षण नहीं है। क्योंकि वस्तु न केवल उत्पाद, व्यय (अनित्य) रूप ही है, जैसा बौद्ध लोग मानते हैं और न केवल ध्रौव्य (नित्य) रूप ही है, जैसा सांख्य मानते हैं। अत: अलग-अलग दोनों नय मिथ्या हैं। इस तरह वस्तु के एक-एक अंश को ही पूर्ण सत्य मानने वाले एकान्तवादी दर्शनों का समन्वय करने के लिए जैनदर्शन में नय की मीमांसा की गयी है। सभी दर्शन अपनी-अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन अपने-अपने अभिप्रायों के अनुसार करते हैं। अतः जितने अभिप्राय हैं उतने ही नयवाद हैं। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है-'जितने वचन मार्ग हैं अर्थात् अभिप्राय
196 :: जैनदर्शन में नयवाद
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