________________
रूप हैं।
प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और उसमें वह परिवर्तन प्रति समय होता रहता. है। उदाहरणार्थ – एक नन्हे शिशु को लिया जा सकता है। इस शिशु में प्रति क्षण परिवर्तन हो रहा है, अतः कुछ समय बाद वह युवा होता है और तदनन्तर वृद्ध । शैशव से युवकत्व और युवकत्व से वृद्धत्व की प्राप्ति तत्क्षण ही नहीं हो जाती है। ये दोनों अवस्थाएँ प्रतिक्षण होने वाले सूक्ष्म परिवर्तन का ही परिणाम हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रतिक्षण होने वाला यह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि हम उसे देखने में असमर्थ हैं, पर इस परिवर्तन के होने पर भी उस शिशु में एकरूपता बनी रहती है, जिसके फलस्वरूप वह अपनी युवा और वृद्ध अवस्था में भी पहचाना जाता है। यदि द्रव्य को त्रिलक्षणात्मक न मानकर केवल नित्य मानें तो उसमें कूटस्थ नित्यता आ जाएगी और किसी भी प्रकार का परिणमन नहीं हो सकेगा तथा यदि अनित्य मान लिया जाय तो आत्मा के सर्वथा क्षणिक होने से पूर्व में ज्ञात किये गये पदार्थों का स्मरण आदि व्यापार भी नहीं बन सकेगा ।
इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार सत् (वस्तु) पूर्ण रूप से केवल कूटस्थ नित्य या केवल निरन्वय विनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थ नित्य और अमुक भाग परिणामि नित्य अथवा उसका कोई भाग तो मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। इसके अनुसार चाहे चेतन हो या जड़, मूर्त हो या अमूर्त, सूक्ष्म हो या स्थूल, सभी सत् कहलाने वाली वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप हैं, नित्यानित्य स्वभाव वाली हैं।
जैनदर्शन में वस्तु के एकान्तरूप नित्यत्व और अनित्यत्व की समीक्षा की गयी है। विश्व में न कोई वस्तु सर्वथा नित्य है और न कोई सर्वथा अनित्य, दोनों सम स्वभाव हैं। पुद्गल से लेकर आकाश पर्यन्त सभी वस्तुओं का स्वरूप एकसा है। अर्थात् वे नित्यानित्य स्वभाव वाली हैं। ऐसा नहीं है कि आकाश और आत्मा आदि पदार्थ सर्वथा नित्य हों और पुद्गल आदि पदार्थ सर्वथा अनित्य । जैसा कि न्यायवैशेषिक आदि मानते हैं । द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्यायदृष्टि से अनित्य । जिस प्रकार आकाश द्रव्यरूप से नित्य है उसी प्रकार पुद्गल भी नित्य है। और जिस प्रकार पुद्गल पर्याय रूप से अनित्य है उसी प्रकार आकाश भी अनित्य है। चूँकि प्रत्येक सत् उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक है, अतएव पुद्गल, आकाश और आत्मा आदि पदार्थ भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप हैं, उनमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय की धारा चल रही है । पर इस धारा के चलने पर भी उनका स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता । जिस समय दीपक के तेज परमाणु तम रूप पर्याय में परिवर्तित होते हैं, उस समय तेज परमाणुओं का व्यय होता है और तम-रूप पर्याय
202 :: जैनदर्शन में नयवाद
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org