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एक भी पदार्थ नहीं जो सत् स्वरूप न हो, इसलिए यह सर्व पदार्थ स्थित है। उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वभाव होने से त्रिलक्षणात्मक है । सब पदार्थों में अन्वय रूप से पायी जाती है इसलिए एक है और अनन्त पर्यायों का आधार है इसलिए अनन्त पर्यायात्मक है। यद्यपि सत्ता का स्वरूप उक्त प्रकार का है तो भी यह केवल अन्वय रूप से ही विचार करने पर प्राप्त होता है, व्यतिरेक रूप से विचार करने पर तो इसकी स्थिति ठीक इससे उलटी होती है। इसी से इसे उक्त कथन के प्रतिपक्ष वाला भी बतलाया गया है। आशय यह है कि वस्तु न सामान्यात्मक ही है और न विशेषात्मक ही, किन्तु उभयात्मक है, जिसकी सिद्धि विवक्षा भेद से होती है । नयपक्ष यह विवक्षा भेद या सापेक्षवाद का ही पर्यायवाची है। इससे सामान्य- विशेष रूप से उभयात्मक वस्तु की सिद्धि होती है ।
सत्ता की विशेषता बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है- 'सत्ता सब पदार्थों में रहती है, समस्त पदार्थों के समस्त रूपों में रहती है, समस्त पदार्थों की अनन्त पर्यायों में रहती है, उत्पाद - व्यय ध्रौव्यात्मक है, एक है और सप्रतिपक्षा है । """
सत्ता का प्रतिपक्षी तो असत्ता ही हो सकती है; किन्तु असत्ता का अर्थ तुच्छाभाव नहीं है। जैनदर्शन में जो सत् है वही दृष्टिभेद से असत् भी कहा जाता है। इस प्रकार जगत् में जो कुछ सत् है वह किसी अपेक्षा से असत् भी है । न कोई वस्तु सर्वथा सत् है और न कोई वस्तु सर्वथा असत् है; किन्तु प्रत्येक वस्तु सदसदात्मक (अस्ति-नास्ति रूप ) है । वस्तु का अस्तित्व केवल इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह अपने स्वरूप को अपनाये हुए है; किन्तु इस बात पर भी निर्भर है कि अपने सिवाय वह संसार भर की अन्य वस्तुओं के स्वरूपों को नहीं अपनाये हुए है। यदि ऐसा न माना जाये तो किसी भी वस्तु का कोई प्रतिनियत स्वरूप नहीं रह सकता और ऐसा होने पर सब वस्तुएँ सब रूप हो जाएँगी। अनेकान्तात्मक वस्तु का यह सदसदात्मक स्वरूप स्याद्वाद और नयवाद के दृष्टिकोण से निर्विरोध सिद्ध होता है, जिसका स्पष्ट विवेचन आगे द्रव्य - विवेचन के अवसर पर किया जाएगा।
(ख) द्रव्य-स्वरूप : द्रव्य शब्द का उल्लेख जैन और न्याय-वैशेषिक, मीमांसा आदि वैदिक दर्शनों में स्पष्ट रूप से मिलता है। जैनदर्शन में जीव, पुद्गल, धर्म, अंधर्म, आकाश और काल को द्रव्य कहा गया है 12 तथा न्याय-वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा, आकाश, दिशा, काल और मन इन नौ को द्रव्य कहा है; किन्तु वैशेषिक दर्शन मान्य इन नौ द्रव्यों का अन्तर्भाव जैन दर्शन के छः द्रव्यों में ही हो जाता है, जिसका स्पष्ट विवेचन द्रव्य-भेद प्रकरण में किया जाएगा। सर्व प्रथम जैन-आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण करते हुए कहा है'जो सत्ं लक्षण वाला है, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है तथा गुण - पर्यायों
नयवाद की पृष्ठभूमि :: 17
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