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________________ अकलंक देव ने कहा है: 'श्रुत के दो काम हैं, उनमें से एक का नाम स्याद्वाद है और दूसरे का नाम नय। अनेक धर्मात्मक सम्पूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद कहते हैं और वस्तु के एक देश कथन को नय कहते हैं।" आचार्य समन्तभद्र ने भी 'स्याद्वाद के द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थ के धर्मों का अलग-अलग कथन करने वाले को नय कहा है। 10 प्रमाण के द्वारा अनेकान्त का बोध होता है और नय के द्वारा एकान्त का। किन्तु नय तभी सुनय है जब वह सापेक्ष हो। यदि वह अन्य नयों के द्वारा गृहीत अन्य धर्मों का निराकरण करता है तो दुर्नय हो जाता है। अतः सापेक्ष नयों के द्वारा गृहीत एकान्तों के समूह का नाम ही अनेकान्त है और अनेकान्त का ग्राहकं या प्रतिपादक स्याद्वाद है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए नय को समझना आवश्यक है और नय के द्वारा ही एकान्त का निरसन सम्भव है; क्योंकि यद्यपि नय एकान्त का ग्राहक है, किन्तु वह एकान्त भी तभी सम्यक् एकान्त कहा जाता है जब वह अन्य एकान्तों का निराकरण नहीं करता। अतः अन्य सापेक्ष एकान्त ही सम्यक् एकान्त है। जैनदर्शन एकान्त का विरोधी नहीं है, किन्तु मिथ्या एकान्त का विरोधी है। इस प्रकार के एकान्तों के समन्वय के लिए नय का ज्ञान आवश्यक है। नय का ज्ञाता यह जानता है कि वस्तु को जानने के बाद ज्ञाता अपने अभिप्राय के अनुसार उसका कथन करता है; अतः उसका कथन उतने ही अंश में सत्य है, सर्वांश में सत्य नहीं है, दूसरा ज्ञाता उसी वस्तु को अपने अभिप्राय के अनुसार भिन्न रूप से कहता है। उनके पारस्परिक विरोध को नयदृष्टि से ही दूर किया जा सकता है। अत: वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने के साथ उसके सम्बन्ध में विभिन्न ज्ञाताओं के विभिन्न अभिप्रायों को समझने के लिए नय को जानना चाहिए। यही नय की उपयोगिता (3) जैनदर्शन में वस्तु-व्यवस्था __ जैनदर्शन में वस्तु-व्यवस्था का विवेचन सत्, द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में किया गया है। (क) सत्-जगत् की प्रत्येक वस्तु चाहे वह द्रव्य हो या गुण हो या पर्याय हो, जो कुछ भी हो, सबसे पहले वह सत् है, उसके पश्चात् ही वह अन्य कुछ है। जो सत् नहीं है वह कुछ भी नहीं है। अतः प्रत्येक वस्तु सत् है। सत् के भाव को ही सत्ता या अस्तित्व कहते हैं। पदार्थों में स्वरूप का अवबोधक अन्वय रूप जो धर्म पाया जाता है उसे सत्ता कहते हैं। यह सत्ता अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव के द्वारा नाना पदार्थों में व्याप्त होकर रहती है इसलिए नाना रूप है। ऐसा 16 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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