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________________ का आश्रय है अथवा गुण-पर्याय स्वभाव वाला है, वह द्रव्य है। आचार्य उमास्वामी, 15 और श्री माइल्ल धवल ने भी इसी प्रकार द्रव्य का लक्षण किया है। विश्लेषण-जो सत् है, वह द्रव्य है और जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है वह सत् है। जो द्रव्य है वह गुण-पर्यायवान है इस तरह प्रकारान्तर से द्रव्य ही सत् है और वही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। और वही गुण-पर्यायों वाला है वस्तुतः ये तीनों ही लक्षण विभिन्न रूप से द्रव्य की विशेषताओं को बतलाते हैं। सत् कहने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और गुण-पर्याय नियम से गृहीत होते हैं। 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त' कहने से सत् और गुणपर्यायवत्व गृहीत होते हैं। तथा 'गुणपर्यायवत्' कहने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और सत् गृहीत होते हैं। इस तरह ये तीनों लक्षण परस्पर में अविनाभावी हैं; क्योंकि जो सत् है वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य होने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। एक द्रव्य में क्रम. से होने वाली पर्यायों की परम्परा में पूर्व पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं, उत्तर पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं और पूर्व पर्याय का विनाश तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपनी जाति को न छोड़ने का नाम ध्रौव्य है। गुण ध्रुव (सदा रहने वाले) होते हैं, पर्याय उत्पाद, विनाशशील होती है, अतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त से गुणपर्यायवत्व सिद्ध होता है। इस तरह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नित्यानित्य स्वरूप परमार्थ सत् को कहते हैं और गुणपर्याय को भी कहते है; क्योंकि गुण-पर्याय के बिना उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सम्भव नहीं है। इसी तरह गुण अन्वयी होते हैं, प्रत्येक अवस्था में द्रव्य के साथ अनुस्यूत रहते हैं और पर्याय व्यतिरेकी होती हैं, प्रतिसमय परिवर्तनशील होती हैं, अत: गुण व पर्याय उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य का सूचन करते हैं तथा नित्यानित्य स्वभाव परमार्थ सत् का अवबोध कराते हैं। सत्ता या अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। वह अन्य साधनों से निरपेक्ष होने से अनादि-अनन्त है, उसका कोई कारण नहीं है, सदा एक रूप से परिणत होने से वैभाविक भाव रूप नहीं है, द्रव्य भाववान् है और अस्तित्व उसका भाव है। इस अपेक्षा से द्रव्य और अस्तित्व में भेद होने पर भी प्रदेश भेद न होने से द्रव्य के साथ उसका एकत्व है, अत: वह द्रव्य का स्वभाव ही है। वह अस्तित्व जैसे भिन्नभिन्न द्रव्यों से भिन्न-भिन्न होता है उस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। उन सबका अस्तित्व एक ही है। एक द्रव्य से दूसरा द्रव्य नहीं बनता। सभी द्रव्य स्वभाव-सिद्ध हैं और चूँकि वे अनादि अनन्त हैं; और जो अनादि अनन्त होता है उसकी उत्पत्ति के लिए अन्य 18 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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