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________________ तीसरा वचनमार्ग नहीं है। जब वस्तु में वर्तमान अस्तित्वादि धर्मों की काल आदि के द्वारा भेद विवक्षा होती है, तब एक शब्द में अनेक अर्थों का ज्ञान कराने की शक्ति का अभाव होने से क्रमशः कथन होता है और जब उन्हीं धर्मों में काल आदि के द्वारा अभेदविवक्षा होती है तब एक शब्द को एक धर्म का बोध कराने की मुख्यता से तादात्म्यरूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखण्ड रूप से युगपत् कथन हो जाता है। यह युगपत् कथन सकलादेश होने से प्रमाण कहलाता है और क्रमश: कथन विकलादेश होने से नय कहलाता है। सकलादेश और विकलादेश दोनों में ही सप्तभंगी होती है। सकलादेश में होने वाली सप्तभंगी प्रमाण सप्तभंगी है और विकलादेश में होने वाली सप्तभंगी नय सप्तभंगी है। ___ इस प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी के प्रयोग में वक्ता की विवक्षा के अतिरिक्त और कोई मौलिक भेद नहीं है। दोनों ही सप्तभंगी में 'स्यादस्त्येव जीवः' यह उदाहरण प्राप्त होता है। मतान्तर से 'स्यात् जीवः' 'स्यात् जीव एव 'यह प्रमाण वाक्य का और 'स्यादस्त्येव जीवः' यह नयवाक्य का उदाहरण है। इस प्रकार वस्तु स्वरूप के परिज्ञान के लिए 'सप्तभंगीवाद' की पूर्ण उपयोगिता सिद्ध होती है। सन्दर्भ 1. प्रमाणनयैरधिगमः। त. सू. 1/6 2. ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ लघी., श्लोक 52 3. णाणं होदि पमाणं णओवि णादुस्स हिदय भावत्थो। णिक्खो ओवि उपाओ जुत्तीए अत्थ पडिगहणं।-ति. प. 1/83 4. प्रमाण-नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते।। युक्तचायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।।-ध. टी. पु. 1, पृ. 16 पर उद्धृत। 5. जो ण पमाण णएहिं णिक्खेवेण णिरिक्खदे अत्थं । ___ तस्साजुत्तं जुत्तं जुतमजुत्तं व पडिहाई॥ ति. प., 1-82 6. अत्थं जो न समिक्खइ निक्खेवणयप्पमाण ओ विहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं जुतमजुत्तं व पडिहाई।–वि. भा., गा. 2764 7.णिक्खेव णय पमाणं णादणं भावयंति जे तच्चं। ते तत्थ तच्चमग्गे लहंति लग्गाहु तत्थयं तच्च ।। . गुण पज्जाया लक्खण सहावणिक्खेवणयपमाणं च। जाणदि जदि सवियप्पं दव्वसहावं खु वुझेदि।।-न. च. गा. 282-283 8. प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्। न्या. मं.,-पृ. 257 9. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते ज्ञायते वस्तु-तत्त्वं येन तत्प्रमाणम्। प्र. र., 1/1, पृ. 14 तत्त्वाधिगम के उपाय :: 183 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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