SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'नास्ति' में से तथा जीव और अजीव शब्दों में से चाहे जिस किसी एक शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और चाहे जिसका प्रयोग होने पर सम्पूर्ण अभिधेय (वस्तु-जात) अपने प्रतियोगी से रहित हो जाता है अर्थात् 'अस्तित्व-नास्तित्व' से सर्वथा रहित हो जाता है और इससे सत्ताद्वैत का प्रसंग आता है तथा नास्तित्व का सर्वथा अभाव होने से सत्ताद्वैत आत्महीन हो जाता है; क्योंकि पर-रूप के त्याग के अभाव में स्वरूप का ग्रहण नहीं बनता। जैसे-घट में अघट रूप के त्याग बिना अपने स्वरूप की प्रतिष्ठा नहीं बन सकती। इसी तरह अभाव भी भाव के बिना नहीं बनता; क्योंकि वस्तु का वस्तुत्व स्वरूप के ग्रहण और पर-रूप के त्याग पर ही निर्भर है। 'वस्तु ही पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अवस्तु हो जाती. है।12 समस्त स्वरूप से शून्य कोई पृथक् अवस्तु सम्भव ही नहीं है। इस तरह आचार्य समन्तभद्र ‘एवकार' के प्रयोग को प्रत्येक पद या वाक्य के साथ आवश्यक मानते हैं। विद्यानन्द स्वामी ने भी इसी बात को कहा है-'अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए वाक्य में अवधारण अवश्य करना चाहिए। अन्यथा वाक्य अनुक्त के समान ही होगा।313 इसलिए 'अस्ति जीव' अर्थात् 'जीव अस्तित्ववान् है' इस वाक्य में 'एव' अवधारण अवश्य होना चाहिए अर्थात्-अवधारण या निश्चय वाचक 'एव' शब्द का प्रयोग जीव पद के साथ करना चाहिए। इस प्रकार जीव पद के साथ 'स्यात्' और 'एव' पद का प्रयोग करने से वाक्य का आकार होगा 'स्यादस्त्येव जीवः' अर्थात् कथंचित् या किसी अपेक्षा से जीव अस्तित्ववान् ही है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी अपेक्षा से जीव अस्तित्ववान् ही है और किसी दूसरी अपेक्षा से नास्तित्व आदि धर्म संयुक्त भी है और ऐसा होने से पदार्थ का स्वरूप निर्दोष सिद्ध होता है। यही सापेक्ष कथन सप्तभंगी का फलितार्थ है। जो वस्तुस्वरूप की सिद्धि करने में समर्थ है। सप्तभंगी के भेद-सप्तभंगी के दो भेद हैं-(1) प्रमाणसप्तभंगी और (2) नयसप्तभंगी। प्रमाण सकलवस्तु ग्राही होता है और नय एकदेश-ग्राही। जहाँ वक्ता एक धर्म के द्वारा पूर्णवस्तु का बोध कराना चाहता है , वहाँ उसका वाक्य प्रमाणवाक्य कहा जाता है। यदि वह एक ही धर्म का बोध कराना चाहता है और वस्तु के वर्तमान शेष धर्मों के प्रति उसकी दृष्टि उदासीन है, तो उसका वाक्य नयवाक्य कहा जाता है। साधारणत: जितना भी वचनव्यवहार है वह नय के अन्तर्गत है। अत: नयसप्तभंगी की प्रमुखता है। यों तो अनेक धर्मात्मक वस्तु का बोध कराने के हेतु प्रवर्तमान शब्द की प्रवृत्ति दो रूप से होती है-(1) क्रमश: और (2) यौगपद्य। 182 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy