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________________ प्रकार भी है। प्रत्येक उत्तर या कथन के साथ स्यात्' शब्द का प्रयोग करने से सर्वथा एकान्त दृष्टि का परिहार हो जाता है।09 __वास्तव में 'स्यात्' के साथ 'एव' शब्द इस बात को द्योतित करता है कि उस विशेष दृष्टि से पदार्थ का वही रूप है और वह निश्चित है, उस दृष्टि से वह अन्यथा नहीं हो सकता। वस्तु स्वरूप की अपेक्षा अस्तिरूप ही है, कभी भी स्वरूप की अपेक्षा वह नास्ति रूप नहीं कही जा सकती। जैसे-'स्यादस्त्येव जीवः' यहाँ 'स्यात्' पद के साथ 'एवकार' का प्रयोग किया गया है। ऐसे प्रयोग स्थलों पर 'स्यात्' पद के साथ 'एवकार' के प्रयोग की सार्थकता सिद्ध करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है जो पद ‘एवकार (अवधारणार्थक ‘एव' निपात) से विशिष्ट होता है, जैसे-'जीव एव' वह अस्वार्थ (अजीवत्व) से स्वार्थ (जीवत्व) को अलग करता है और जो पद एवकार' से रहित होता है, वह न कहे हुए के समान है; क्योंकि उससे नियमद्वय के इष्ट होने पर भी व्यावृत्ति का अभाव होता है अर्थात् निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे जाने से प्रतिपक्ष की निवृत्ति नहीं बन सकती और प्रतिपक्ष की निवृत्ति न हो सकने से पदों में परस्पर पर्यायभाव ठहरता है, पर्याय भाव के होने पर परस्पर प्रतियोगी पदों में से भी चाहे जिस पद का कोई प्रयोग कर सकता है और चाहे जिस पद का प्रयोग होने पर सम्पूर्ण अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य से च्युत (प्रतियोगी से रहित) हो जाता है और जो प्रतियोगी से रहित होता है वह आत्महीन होता है अर्थात् अपने स्वरूप का प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। इस तरह पदार्थ की हानि ठहरती है। जैसे–'अस्ति जीवः' इस वाक्य में 'अस्ति' और 'जीव' ये दोनों पद ‘एवकार' से रहित हैं। 'अस्ति' पद के साथ अवधारणार्थक "एव' शब्द के न होने से नास्तित्व का व्यवच्छेद (निराकरण) नहीं बनता और नास्तित्व का व्यवच्छेद न बन सकने से 'अस्ति' पद के द्वारा नास्तित्व का भी कथन होता है और इसलिए 'अस्ति' पद के प्रयोग में कोई विशेषता न रहने से वह अनुक्त . तुल्य हो जाता है। इसी तरह 'जीव' पद के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग न होने से अजीवत्व' का व्यवच्छेद (निराकारण) नहीं बनता और अजीवत्व' का व्यवच्छेद न बन सकने से 'जीव' पद के द्वारा 'अजीवत्व' का भी प्रतिपादन होता है, इसलिए 'जीव' पद के प्रयोग में कोई विशेषता न रहने से वह अनुक्ततुल्य हो जाता है। इस तरह 'अस्ति' पद के द्वारा 'नास्तित्व' का भी और 'नास्ति' पद के द्वारा 'अस्तित्व' का भी कथन होने से तथा 'जीव' पद के द्वारा 'अजीव' अर्थ का भी और 'अजीव' पद के द्वारा 'जीव' अर्थ का भी कथन होने से 'अस्ति-नास्ति' पदों में तथा 'जीव-अजीव' पदों में 'घट' और 'कुम्भ' शब्दों की तरह एकार्थकता सिद्ध होती है और एकार्थक होने से घट और कलश शब्दों की तरह ‘अस्ति' और तत्त्वाधिगम के उपाय :: 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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