SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पड़ेगा अन्यथा उसका वह स्वरूप-कथन नहीं किया जा सकता है। वैदिक और बौद्ध दर्शनों से ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जो सापेक्ष दृष्टिकोणपरक हैं। उपनिषद् ग्रन्थों में आत्मा के विषय में कहा गया है.'आत्मा चलती भी है नहीं भी चलती है, दूर भी है समीप भी है, वह सबके अन्तर्गत भी है, बाहर भी है।' उसको अणु से भी अणीयान् और महत् से भी महीयान् कहा गया है अर्थात् सूक्ष्मता की दृष्टि से वह अणु से भी बहुत छोटा और महत्ता की दृष्टि से महान् से भी महान् है। वह अपने हृदय में स्थित अत: छोटेसे-भी छोटा या सर्षप (सरसों) आदि से भी छोटा तथा सम्पूर्ण संसार का भी अभिव्यापक अतः बड़े-से-भी बड़ा अर्थात् पृथ्वी और आकाश से भी महान् है।306 ___ एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती से किसी ने प्रश्न किया था कि 'आप विद्वान् हैं या अविद्वान् ? तो स्वामी जी ने उत्तर दिया-दार्शनिक क्षेत्र में विद्वान् हूँ और व्यापारिक क्षेत्र में अविद्वान्। स्वामी जी के कहने का अभिप्राय यह है कि दार्शनिक की अपेक्षा विद्वान और व्यापारी की अपेक्षा अविद्वान् हैं।' सांख्य दर्शन में एक ही प्रकृति को सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी कहा गया है अर्थात् वह सतोगुणी भी है, रजोगुणी भी है और तमोगुणी भी है। वेदान्त में स्वयं आचार्य शंकर ने माया को त्रिगुणात्मिका कहा है। भावात्मक भी कहा है और अभावात्मक भी। तमोरूपा आवरण शक्ति की अपेक्षा अभावात्मक और रजोरूपा विक्षेप शक्ति की अपेक्षा भावात्मक कहा है। यह माया अप्रतीतिरूप भी है और विपरीत प्रतीतिरूप भी है।08 इस प्रकार इन सब कथनों का आशय क्या सापेक्ष दृष्टिकोणपरक नहीं है? यदि है, तो जहाँ सापेक्ष दृष्टिकोण है वहीं सापेक्षवाद, स्याद्वाद या सप्तभंगीवाद है। विज्ञ पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि इतना स्पष्ट कथन होने पर भी आचार्य शंकर जैसे उद्भट दार्शनिक विद्वान् जैनदर्शन के स्याद्वादरूप और सप्तभंगवाद को समीचीन रूप में नहीं समझ सके, यह बात समझ में नहीं आती। प्रत्येक भंग (वचन-प्रकार) के साथ 'स्यात्' और 'एव' पदों का प्रयोग होने पर उक्त संशय अनिश्चितता, अप्रामाणिकता आदि दोषारोपणों का कोई अवसर ही नहीं आ पाता; क्योंकि 'स्यात् पद 'कथंचित्' किसी अपेक्षा से अर्थ का अवबोधक है और 'एवकार' अवधारणार्थक (निश्चयार्थक) है। यद्यपि 'स्यात्' पद के विधिलिङ् में विधि, विचार आदि अनेक धर्म होते हैं, तथापि यहाँ दार्शनिक क्षेत्र में 'स्यात्' पद कथंचित्, कथंचन, निश्चित अपेक्षा से, किसी दृष्टि या सुनिश्चित दृष्टिकोण से, विवक्षा या वक्ता की इच्छा से तथा अनेकान्त अर्थ का बोधक है। इसका अर्थ है कि वस्तु किसी दृष्टि से इस प्रकार ही है और किसी दृष्टि से दूसरी 180 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy