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________________ सात ही होते हैं। सप्ताह के दिन रवि, सोम, मंगल, आदि भी सात ही होते हैं. विभक्तियाँ प्रथमा, द्वितीया आदि भी सात ही होती हैं, जीवादि तत्त्व भी सात ही होते हैं। नैगमादि नय भी सात ही होते हैं। व्यसन और उनके परित्याग के उपाय भी सात ही होते हैं। इहलोकभय, परलोक भय आदि भय भी सात ही होते हैं। वर-वधू के पाणिग्रहण संस्कार के समय के फेरे और सप्तपदी वचन भी सात ही होते हैं, इस प्रकार यह 'सप्त' संख्या बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कुछ जैनेतर विद्वानों, विशेषकर आचार्य वादरायण और उनके ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार आचार्य शंकर जैसे उद्भट दार्शनिकों ने जैनदर्शन के अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी वाद पर अनेक दोषारोपण किये हैं। इन सभी ने 'स्यात्' पद के अर्थ को ठीक तरह न समझने के कारण या ठीक तरह समझने का प्रयास ही न करने के कारण इन सिद्धान्तों में अनेक दूषण उपस्थित कर इन्हें सर्वथा असंगत बतलाया है। आचार्य शंकर अपने भाष्य में लिखते हैं-'दिगम्बर आम्नाय के सप्तभंगी आदि विषयों पर हमारा कथन है कि ऐसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि एक वस्तु में सप्तधर्मों का सद्भाव असम्भव है। एक धर्मी (वस्तु) में एक साथ सत्त्व-असत्त्व आदि परस्पर-विरोधी धर्मों का समावेश शीत और उष्ण के समान सम्भव नहीं है। जो यह सप्त पदार्थों का निर्धारण किया गया है वे उतने और उस रूप में वैसे ही हैं अथवा नहीं हैं ? अन्यथा इस रूप भी होंगे, अन्य रूप भी होंगे। इस प्रकार अनिश्चित रूप-ज्ञान संशयज्ञान के समान अप्रमाण होगा।02 इस तरह वे संशय और अनिश्चितता का दूषण देते हैं। इसी प्रकार वे सप्तभंगी न्याय के 'स्याद् अस्ति' और 'स्यान्नास्ति' इन प्रथम और द्वितीय भंगों पर अनिश्चितता का दोषारोपण करते हुए लिखते हैं-'स्याद् अस्ति', 'स्यान्नास्ति' इत्यादि विकल्पों का उपनिपात तो अनिर्धारणात्मकता को ही व्यक्त करेगा। इस प्रकार निर्धारणकर्ता और निर्धारणफल की स्याद् अस्तिता हुआ करेगी, स्यान्नास्तिता हुआ करेगी। ऐसा होने पर प्रमाणभूत तीर्थंकर प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमितियों के स्वरूप में निश्चयात्मकता न होने से किस प्रकार उपदेश देंगे और तीर्थंकर के अभिप्राय का अनुसरण करने वाले उस उपदेश में, जिसका स्वरूप ही निश्चित नहीं है, कैसे प्रवृत्ति करेंगे?'303 वे तृतीय भंग-'स्यादवक्तव्य' पर भी आपत्ति करते हुए लिखते हैं 'इन पदार्थों की 'अवक्तव्यता' भी सम्भव नहीं है अर्थात् ये पदार्थ अवक्तव्य भी नहीं हो सकते। यदि वे अवक्तव्य हैं तो उनका कथन नहीं किया जा सकता। कथन भी किया जाय और अवक्तव्य भी कहा जाय-ये दोनों बातें परस्पर में विरुद्ध हैं। '304 इसप्रकार आचार्य शंकर ने 'उन्मत्तप्रलापवत्' जैसे दूषित शब्दों का प्रयोग करते हुए जैनदर्शन के उक्त अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी सिद्धान्तों पर संशय, तत्त्वाधिगम के उपाय :: 177 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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